Saturday, 23 December 2017

कैसी है वो।

दिन मेरा ढलता है रोज़,ये सोचकर कि ‘कैसी है वो?'
साल का हर एक दिन,
मुझे रोज़ कुछ बताता था,
मिसाल के तौर पर एक रोज़ वो दौड़ते-दौड़ते मेरे पास आया,
और कहता है,
“वो मासूम है,"
मैं खड़ा रहा ख़ामोश,
और सुनता रहा उसे,
बस नज़रे कहीं खो सी गयी थी मेरी
एक रोज़ जब पूर्णिमा का चाँद अपने उफ़ान पर था,
इश्क़ में डूबा हुआ,तब दिन ने,
धीरे से आकर मेरे कान में फुसफुसाया,
“वो बहुत ख़ूबसूरत है।"
इतना बताने के बावजूद हमेशा मैं मेरे लफ्ज़-ए-बयाँ में खुश था,
ज़्यादा नही सोचा कभी,
बस एक शाम,सूर्यास्त के वक़्त,
एक ख़्याल धीरे से मेरे मन में दबिश देता है,और कहता है,
“वो दिल की साफ़ है।”
हाँ, मैं नही जानता उसे पूरी तरह,
पर एक दफ़ा,साथ में जुगलबंदी करने की ख़्वाईश ज़रूर रखता हूं मैं।

Thursday, 14 December 2017

तिलिस्म।

उसे मेरे उर्दू के शब्द बहुत पसंद है,
पर मुझे वो सीधे तरह से 
बात करने की सलाह देती है,
कल मैंने भी कह दिया,
नही बदल सकता अपना लहज़ा,
और वो भी बड़े मासूमियत से मान गयी।
वो रात का पहला पहर,
जब कोई दूर-दूर तक नही था,
सिवाय इस सर्दी की धुंध के,
पर सुकून की बात थी,कि तुम थी,
लेकिन कमबख्त क़िस्मत लंबी नही चली,
और सुबह मेरे सपने का तिलिस्म टूट गया।

Monday, 20 November 2017

मोती।

पलकों से गिरा था वो,और आँखों को सुस्त कर गया,
बेढंग चेहरा हुआ,इधर जनाब-ए-हलक में सर्द कर गया,
मुझे गवारा नही गुज़रता,
जब किसी की आँखों से,
उन छोटे मोती जैसे आंसुओ को बिखरते देखता हूं,
आख़िर उनकी भी तो कोई कीमत होती है।
पर वो पलकें आज तुम्हारी थी,
आँखे नम थी,चश्मा हटा था,
और एक मुस्कान गायब थी,
मुझे बातें करनी थी,देखना था,
मिलना था,पूछना भी था, 
पर इतनी उम्मीदें मेरा ख़ुदा तो पूरी नही कर सकता,
वो सीधा-सीधा वक़्त का बहाना देकर मुझे फुसला लेता है।
मैं चल दिया अपने घर की तरफ़ चुप्पी साधे,
पर दिमाग में वही था और दिल में वो ही थी,
दरख़्तों के साये में रहकर,
भीनी धूप से बचकर,
हाथ में हाथ लेकर,
जन्नत की सेर करने का ख़्वाब देखते-देखते कब घर आ गया,
पता नही चला,पर धुंध मिट गई और ख़्वाब भी बिखर गया,
लेकिन अब अगर मोतियों को बिखरने का मौका देना है,
तो एक संदूक में उन्हें सँभालकर मुझे दे देना,
ताकि उसकी एक माला बनाकर,
मैं मेरे रब की इबादत कर सकूँ।

Monday, 30 October 2017

इबादत।

मुझे आज भी लगता है जैसे कल ही हमारी मुलाक़ात हुई हो,
तुम्हारा ओर मेरा नज़रे मिलाना,
रासलीला की उन इठलीयो जैसा लगने लगा है,
जिसमे इरादा तो नेक है,पर तरीक़े लुभावने।
हक़ीकत में जब पहली दफ़ा देखा था,
तब सोचा था,कि कलम की स्याही तुम्हारी मुरीद होगी,
ओर हम वो बाशिंदे,
जो स्याही से ख़ुदा ओर उसके इश्क़ की इबादत करते है।
मैं आज भी वही हूँ जिसे तुमने पहली मरतबा देखा था,
बस कुछ बदला है इतने वक़्त में तो वो है मेरे अल्फ़ाज़,
जो कल तक शायद थोड़े फीके थे,
पर अब उनमे भी श्रृंगार का वो रस है,
जिससे तुम्हारी बाहरी चेष्टाओं का पता लगता है।
तुम्हारी वो कथक की मुद्राये आज भी याद है,
जिसने कंपन पैदा किया था मेरे भीतर,
शाम का वो एक तरफ़ा समाँ,जब अँधेरा नही था,
उजाला नही था,पर तुम थी,और मेरी दो टूक नज़रे,
उस शाम से लेकर आज की रात तक,
कोई गलतफ़हमी नही पाली मैंने,
पर मेरा पीर मुझे आख़िर में,
रोज़ तुम्हारा सजदा करने की इजाज़त दे देता है।

Friday, 6 October 2017

ये शाम।

ये शाम भी कितनी धुंधली है,
कि बताती नही कुछ,
क्या करे इस शाम-ए-वक़्त में,
जब बोरियत का लबादा ओढ़े बैठे रहते है हम, 
इंतज़ार करते हुए उस सूरज के डूबने का जो सुबह घर की चौखट लाँघकर निकला है,
और अब जा रहा है हाथ में खिलौना लिए ताकि घर की उस तिलिस्मी खिड़की से,
रूठे चेहरों की कोई शिकायत ना सुननी पड़े।
मैं जब शाम को उस पहाड़ को देखता हूँ,
जिसपर सफ़ेद कोहरे की एक परत बिछी रहती है,
तो लगता है ,कि काश मेरी भी शाम ऐसे ही किसी पहाड़ पर,
धुओं के आशिको के साथ ओझल हो जाये।
एक नदी हो,
जिसके चारों तरफ कम ऊँचाई वाले पेड़-पौधे लगे है,
और सामने फ़िर वही शाम,
जब पानी में पैर डालकर उस सूरज को धीरे से अलविदा करने का मन करता है मेरा,हाँ,
ऐसी शाम की ख्वाईश रखता हूँ मैं।
शाम हो चली अब,
सूरज भी अपने घर चला गया,
जो कुछ कसर बाकी रह गयी थी अँधेरा होने में,
वो भी अब पूरी हो चुकी है,
अब शाम नही,सूरज नही,
किसी का इंतज़ार है अभी तो सिर्फ तारों के आने का,
जो बस आते ही होंगे।

Wednesday, 6 September 2017

तुम्हारी लाल साड़ी।

तुम्हारी लाल साड़ी ने कुछ यूं कहा था मुझसे,
कि इश्क़ परवां है तुझ पर,संभलकर रहना,
आँखे ना उठे ताकि शक की बुनियाद बनने का कोई सवाल पैदा ना हो।
लाल रंग बाक़ी रंगों में जिस क़दर छाया हुआ था,
उम्मीद थी जैसे समां इत्र की खुशबु से महकेगा,और
ये रंग किसी और के बैचेन होने का सबब बन जाये,
मैं काम कही कर रहा था,और नज़र,दिल,दिमाग,
ये सब कही और थे, 
सब अपना ताना बाना बुन रहे थे जैसे घर में,
छोटे बच्चे को पहले स्वेटर पहनाने की हौड़ मचती है।
नज़र उसे देख-देखकर मेरे अंदर एक सफ़ेद कैनवास पर उसका स्केच बना रही थी,
तो कही दिल शाम-ए-वक़्त में ग़ज़ल सुनकर सिगरेट का कश लेते हुए आराम फरमा रहा था,
मैंने पूछा दिमाग से कि क्या होगा इस इश्क़ का तो जवाब देता है,
सब्र कर,ज़रा ज़िन्दगी का आगाज़ हो जाये,
बड़ा अचंभा होता है मुझे कि एक दौर की गुफ़्तगू तक ना हो सकी हमारे बीच,
क्योंकि शायद उसके लिए भी रिश्तो के किसी सर्टिफिकेट की ज़रूरत पड़ती हो,
मैं चाहता हूँ की बेनाम हो ये रिश्ता,
ताकि तुमसे बात करने में वो झिझक ना हो जिससे अक्सर परेशां रहता हूँ मैं,
वो नब्ज़ पकड़ना चाहता हूँ तुम्हारी,
क्योंकि रक्त की लय से एक ताल बनाकर रियाज़ करते-करते फ़ना होने का मन करता है मेरा।

Tuesday, 5 September 2017

तो वो तुम हो उस्ताद।

तो वो तुम हो उस्ताद जिसने इमारत का नक्शा बनाया,
ख़ाली बंजर ज़मीन बन कर आये थे हम जिसपर कभी,
और आज छोटे छोटे इंसानीयत के बीज़ बो दिए है,
जिसमें संवेदना है,जज़्बात है,एहसास है और करुणा।
मुझे आज भी याद है,
कि कैसे मेरी माँ मेरा हाथ पकड़कर एक लकड़ी की पेंसिल से,
चमकीली काली स्लेट पर,
कुछ लफ्ज़ बनाना सीखाती थी,
वो छोटे से हाथ,
बड़ी मासूमियत से वो सब करते जो उन्हें बताया जाता,
जिसके सहारे आज मैं ये तय कर सकता हूँ ,
कि कितना अदब है मुझमे और कितना सलीका।
छटवीं से लेकर नवीं तक एक शिक्षक मिले,
थे वो संगीत के,
पर उनकी बाते लगती थी जैसे कोई पिता अपने बेटे को एक कैफियत से ज़िन्दगी के मायने सीखा रहा हो,
एक दिन दोस्त दौड़ते-दौड़ते मेरे पास आया,
कहता है तूने सुना“सर का तबादला हो गया",
मैं खड़ा रहा एक सन्नाटे के साथ,
शोक से औतप्रोत,व्याकुल,चिंतित,डरा,सहमा,
ज़मी थी नीचे या नही या खिसक गयी, कुछ पता नही चला,
पर ऐसा लगा जैसे एक बाप अपने काम के सिलसिले में बच्चो से दूर होकर शहर जा रहा है,
मैंने अपना वक़्त सारा फिर दिन का,
आँखों को साफ़ करते करते निकाल दिया ,
जहाँ सिर्फ समंदर का किनारा और कुछ आँख से निकली पानी के छीटे थी,
पर अब महीने में दो बार तो बात हो ही जाती है कभी,
चार साल हो गए है आज,
देखा नही है उन्हें,
पर यकीन है मूझे जल्द मुलाक़ात होगी,
एक शिक्षक ने ,
प्लाटो से लेकर रामानुजन तक,
अकबर से लेकर गाँधी तक और,
शेक्सपियर से लेकर प्रेमचंद तक,
सभी से रूबरू करवाया ,
ये लोग बने महान क्योंकी वो गुरु था जिसने इन्हें महान बताया,
नही तो महात्मा सिर्फ मोहनदास बनकर रह जाते,
और प्रेमचंद सिर्फ धनपत।
शिक्षक उस्ताद गुरु ये सब पर्याय है ज्ञान के,
इल्म के,जिसके सहारे हम अंतहीन समन्दर में रहना सीखते है,
उस्ताद एक आईना दिखाता है,जिसे देखकर एक सच्चाई से रूबरू होते है,कि कौन है और क्या बननें की कोशिश कर रहे है,
अब ये ईमारत मज़बूत बन गयी है,
सभी तूफानों को झेलने लायक,
क्योंकि वो तुम थे उस्ताद जिसने इमारत का नक्शा बनाया,
ख़ाली बंजर ज़मीन बन कर आये थे हम जिसपर कभी।

Sunday, 13 August 2017

आज़ादी।

सड़क से जाते-जाते देखा आज,
कि बाज़ारो में अब तिरंगे दिखने लगे है,
दुकानों पर वो भारत देश है मेरा,
जैसे वीर रस के नग़्मे सुनाई दिए,
और तब महसूस हुआ कि हाँ,आज़ादी का जश्न आने वाला है,
वो मीडिया चैंनलों पर अगस्त क्रांति के प्रसारण से लेकर,
राजपथ की झाखियो तक सब ज़ेहन में आने लगा,
बचपन भी याद आया जब जश्न के एक दिन पहले,
शाम के वक़्त बाबा के साथ,तिरंगा लेने जाता था मैं,
जूते पोलिश,कपड़े प्रेस,हाथ में झंडा,सीने पे तिरंगा और
वो पाकसाफ़ वतन परस्ती जो आज कई लोगो के दिलों में,
ज़ंग खा चुकी है, जिसका रंग बहुत गहरा था तब,
पर अब फीखा हो चला है,
शायद छुट्टी समझ बैठे है आजकल लोग इसे,
पर माहौल बनता ज़रूर है हर एक कौम में,
बाज़ार में,और स्कूलों में,
जिसका हिस्सा होने से मैं फक्र करता हूँ,
और तब कुछ पंक्तिया याद आती है,
“वतन की आबरू से मोहब्बत करना सीखा है मैने,
वरना कुछ तो सिर्फ नफ़रत में ज़िन्दगी बीता देते है।"

Wednesday, 2 August 2017

मिल्कियत।

मैं नही जानता मेरा गुनाह क्या है,
लेकिन उसे देखकर सुकूँ की कमी पूरी हो जाती है,
बात करना मुश्किल हो रहा है,
लेकिन दिल की ज़ुबाँ से हमारी बात हो जाती है,
नज़रे अटक भी जाये तो अजनबी बनना पड़ता है,
मोहब्बत में इस क़दर काफ़िर बनना पड़ता है,
मेरी मिल्कियत क्या थी,ये भी उसने बता दिया,
एक कलम,एक जिगर,और कुछ इश्क़ मुझे बता दिया,
अक्सर मेरा मन नही लगता अब लोगो के जमघटो में,
इसी बुनियाद पे लोगों ने हमे पागल बता दिया,
और पँछी क़ैद में रहे ये मुझे गवाँरा नही होगा,
चल उड़ते है,कही दूर,जहाँ सिर्फ़ तेरा और मेरा किनारा होगा।

Monday, 24 July 2017

याद।

तुम्हे देखकर लगता है जैसे बिखर जाऊँगा मैं,
ऐसी शख्सियत लेकर घूमती हो तुम,
आँखों में उतर तो सकता हूँ तुम्हारे,
पर नज़रे,दो-चार करने की हिमायत नही करती,
आज सिलसिला इतना लंबा हो गया है,
कि जाम पर जाम ख़त्म होने की उम्मीद है,
लेकिन वो इश्क़ के धागें अभी-भी पिरोने बाकि रह गए है,
और जिस दिन धागा सुई के आरपार हुआ तब एक हल्का,
चमकीला,रेशमी कपड़ा तैयार होकर,
बाज़ार में बिकने जायेगा,
और वो होगा मेरे मुख्तलिफ़ होने का सबूत,
जब एक स्पर्श तुम्हारा और मेरा साथ होगा,
वो होगा हमारे आफ़ताब का सबूत।

Sunday, 9 July 2017

मैक़दे में बैठा हूँ।

मैक़दे में बैठा हूँ नशे की चुनर ओढ़कर,
तस्वीरें मेज़ पर रखी है,मरासिम की मेरे,
देखकर जिन्हें,यादें ख़ुशबू की तरह फैल जाती है,
यही उफनता शबाब है,मरासिम का मेरे।

एक बोतल मदिरे से मेरा कुछ बिगड़ तो नही जायेगा,
मग़र आड़े आने को कुछ है,तो मज़हब है मेरे,
और ये मौसम क्या मेरे साथ चलने वाला है,
सुना है,आज तो काफ़िले में बादल भी है मेरे।

ये जिंदानुमा लाश अब खानाबदोश हो चली है,
इसे ले जाकर बेच दो,देखते है क्या दाम देता है मेरे,
उन्ही पैसों से अर्थी का हिसाब-किताब देख लेना,
आदत में नही है,क़र्ज़ लेकर जन्नत में जाना मेरे।

Thursday, 6 July 2017

फ़र्ज़।

फ़र्ज़ है मेरा,
इज़हार करने का,
दिल और दिमाग की कशीदाकारी को दिखाने का,
वो बातें बताने का,
जिनकी वजह से आज इज़हार की नौबत आ गयी,
इज़हार करने के बाद,
पानी का घूँट हलक से उतर तो जायेगा,
मगर,ये दिन कैसे बीतें,कि वो सामने बैठी थी,
और सूरत देखकर हाल-ए-वक़्त में उन्होंने बेवा कर दिया,
फिर,जवाब आने को होगा,
कुछ साँसे ऊपर चढ़ेंगी,
कुछ फिर हलक पर कब्ज़ा करेंगी,
बैठा है दिल के दरवाज़े पर संतरी,
आइये,इंतज़ार है।

Saturday, 20 May 2017

ज़िक्र।

मन अब हल्का हो गया है,
कुछ थी बाते अनकही,
जिन्हें एक सागवान के बक्से में,
कई वक़्त पहले रख दिया था,
ख़ामोशी की तालीम देकर,
हाँ, वो सीख गयी थी,पर
गुस्ताख़ी करना,आवाज़ उठाना,
उन्हें आज़ाद होना था,या कहे,
की आबाद होना था,
शब्दों को ज़िंदा किया,
लगाम लगायी,और फिर वहाँ तक पहुँचाया,
जहाँ उनकी मंज़िल थी,
वो मंज़िल जो हमारा रास्ता है
सरल,सुंदर, और स्पष्ट।

Saturday, 6 May 2017

दर्शन।

मंज़िल दूर नही बस उम्मीद पास करनी है,
कुछ सफ़र करना है तो कही चोटियां पार करनी है।

हर वक़्त लोक-लालच में शिकार इंसान होगा,
चोर इंसान होगा तो कोतवाल भी इंसान होगा।

किसी के ज़ख्म भरे नही जाएँगे,
अगर मसीहा होगा तो होठ सिले नही जाएँगे।

ये ज़रूरत है मुझको की अब कोई पनाह दे दे,
अपने दिल में नही तो ज़ुबाँ पर जगह दे दे।

मोहब्बत के फेर का जंग की आड़ में आना ज़रूरी तो नही,
हर वक़्त जंग का फैसला तलवार से आना ज़रूरी तो नही।

मायूस करती है वो गरीबी जहाँ एक रोटी के चार टुकड़े होते है,
खाने वालों की तादाद हज़ारो में,और मनु शर्मसार होते है।

Saturday, 22 April 2017

समझ

जो समझना नही चाहता ,
उसे समझा नही सकते,
खुदकी रगों में टुकड़े बचे है उसके,
पर जिसे नही समझना,
उसे समझा नही सकते,
हेकड़ी की बात है,
या जबर्दस्ती अपनी,
बस नही समझना,
यही ज़िद है और यही लकीर,
फिर चाहे आसमां एक हो,
या फिर ख़ुदा समझाने को आये,
पर जिसे नही समझना,
उसे समझा नही सकते।

Monday, 10 April 2017

बुढ़ापा।

दिन और रात एक सी हो चली,
आँखे खोलकर बिस्तर पर पड़ी रहती है वो,
बूढ़ी,थकी हुई,आलसी पर काम करने को इच्छुक
चलने में बचपना आ गया हैं वापस,
इसलिए लोग भी अब ज़्यादा ध्यान देने लगे हैं,
कितने गुमसुम और फ़ीके हो गए ये दिन,
बगल में अपने अंत की घड़ी में,
रोज़ धीमी-धीमी रेत को रिसते देखकर,
अपना और घड़ी का रिश्ता बरक़रार रखती है,
नानी,दादी कहते हैं जिनको,
ढल रही है उमर,
शायद एक दिन साँझ भी ढल जाये।




Friday, 31 March 2017

बचपन।

पता नहीं कहाँ गए वो दिन,
जिन्होंने शुरूआत में बहुत हँसाया था,
जब ऊंगलियाँ बालपन में थी अपने,
मन बेपरवाह रहता था,पर अब
माथे पे लकीरो से,माथे पर,
रेशम का रास्ता बन चुका है,
तू ही जानता है ,कहाँ गए वो दिन।
झबलो से शुरुआत की थी मैने अपने दिनों की,
आज सूट पहनकर उसी दिन को धीरे से अलविदा करता हूँ,
कुछ तो अलग रहता है वो वक़्त,
जिसे हम बचपन कहकर पुकारते है,
तू ही जानता है,कहाँ गए वो दिन,
धीमे, हल्के, और कच्चे,
बचपन के वो दिन।

Tuesday, 21 March 2017

कब होगा ये सवेरा।

कितना इंतज़ार होगा अब और,
सब्र की भी एक देहलीज़ होती है,
सूरज निकलने को नही मानता,
चाँद लज्जा से मर गया,
पर जाने को तैयार नही,
कब होगा ये सवेरा।
घरों पर ताले बंद पड़े है,
गलियां सुनी-सुनी हो चली,
गाँव ऐसे उजड़े जैसे बस्ती में आग हो,
परिवार उस बैलगाड़ी में बैठा हुआ,
अपना पुश्तेनी मकान देख रहा है,
झरझर,पुराना,लेकिन यादों का ज़खीरा,
पर कोई नही जानता
कब होगा ये सवेरा।

Tuesday, 14 March 2017

रुआँसा।

मन अट नही रहा,
चारो तरफ लोगो का ज़खीरा,
फिर भी लगता है जैसे,
किसी शमशान में अकेले घूम रहा हूँ,
वैसे कल होली की मुबारकबाद,
दे ही दी उन्होंने,
लगा की अब इससे ज़्यादा ख़ुशी की बात क्या है,
पर आज फिर सब रुआँसा हो गया,
फ़र्क़ है आज और कल में,
और मन भी तो अपना मालिक है,
ना मेरी चलने देता है,
ना दिमाग की सुनता है,
बस भटकता है इधर-उधर,
किसी की तलाश में।

Wednesday, 8 March 2017

सुकूँ।

आज लिखकर भी सही नही लग रहा,
कुछ अधूरा है शायद,
कलम भी है मेरे पास ,
कागज़ भी है,
पर सुकूँ नहीं,तभी कही,
कुछ अधूरा है शायद।
ये सुबह से लेकर शाम तक भागते लोग मेरी क्या मदद करेंगे,
इन्ही के पास सुकूँ नही तो जाऊ कहाँ?
या अल्लाह बक्श दे न कुछ आराम,
सुकूँ से ही रह लूँगा कुछ दिन,
जहाँ मेरे लोग होंगे,मेरी सल्तनत होगी,
और मैं उस सल्तनत का बादशाह रहूँगा।

Tuesday, 28 February 2017

खफा।

खफा-खफा से है वो हमसे,
अब तो कुछ बात ही नही करते
वक़्त हो गया एक जवाब देने का,
लेकिन दूर कही वो सन्नाटे में है।
और हम,अपनी फ़र्ज़ अदायी में,
फ़र्ज़ है निग़ाह नही मिलनी चाहिए,
नही तो नापाक करार दिए जायेंगे,
लेकिन कभी कोई इरादा भी नही था,
कि इस अदब के बाहर जाए,
पर इश्क़ ख़ता नही,
और मैं उस ख़ता का मुजरिम नही,
हमने तो सफ़र अकेले शुरू किया,
और अकेले ख़त्म कर देंगे,
पर चुभने की बात ये है कि,
खफा-खफा से है वो हमसे,
अब तो कुछ बात ही नही करते।
                                           -साँझ।

Saturday, 25 February 2017

तैयार नही।

कैसी है बेरुख़ी हमसे,
बात करने को कोई तैयार नही।
मझधार में है कई हफ़्तों से,
समझाने को कोई तैयार नही।
ज़ेहन में रखी है कुछ ख़ास बाते,
मगर कोई ख़ास बनने को तैयार नही।
इश्क़ करने को बेकरार है हम,
पर शायद, बेग़म अभी तैयार नही।
जुल्फ़े माथे से हटाने का लुत्फ़,
अभी वो देने को तैयार नही,
कैसी है बेरुख़ी हमसे,
बात करने को कोई तैयार नही।

Saturday, 18 February 2017

दिलकशी।

हमसे मत पूछना कि मोहब्बत कैसे की जाती है,
मना कर-कर के हम इसी दरियाँ में डूब गए।
पहले लगता था दरियाँ का एक बूँद पानी हमे नही छुयेगा,
पर आज उसी पानी में,नाव बनाकर,किसी के साथ,
इस ढलते हुए सूरज को बड़ी शिद्दत से देखते है,
किसने सोचा था ऐसा होगा,
लेकिन खुशकिस्मती है कि हुआ,
पहले रहते थे अपने में ,
अब साथ लेकर किसी का ख़ुद के साथ रहते है,यही जादू है इस रंग का,दाग तो लगता है,पर फिर तन्हाई घर नही करती,घर करता है इश्क़ जिसे एक बार कर के देखो,
ना ही किसी इष्ठ को याद करना है,
ना नमाज़ अदा करने की ज़रूरत।

Thursday, 16 February 2017

सफ़र।

कितना जल्दी अपनों से दूर हो गया,उस उम्र में जब हम अपने
आने वाले वक़्त के बारे में सोचते है,
और मेंनें उसी वक़्त अपनों को अलविदा कहाँ,
ताकि आने वाले वक़्त के बारे में सोच सकूँ पर उनके पास रहकर नही,उनसे कई मीलों दूर ,जहाँ सिर्फ मैं हूँ और मेरा फ़न है।
जब भी बाबा से बात होती है तो पूछते है कब आओगे,
और मैं हमेशा कहता हूँ इस महीने के आखिरी तक,
महीने निकलते जा रहे है,पर ख़त्म होने का नाम नही ले रहे।
कुछ तो उदासी मुझमें भी अब आने लगी है,
पर हौसले उन्ही के दिए हुए है इसलिए इस सफ़र को पूरा करने का दम, कही किसी कोने में अब भी बरक़रार है,
बस अब ज़रुरत है ,तो उसकी तलाश करने की,
जिसका बेसब्री से मुझे इंतज़ार है।

Saturday, 11 February 2017

शहर।

शहर की नसों में रहते है इंसान,
अलग-अलग फ़र्क़ का औढ़वा लिये,
उसी से पलता है उसी से पालता है,
रिश्ते भी मतलब बनाने लगा शहर
नही तो पहले सिर्फ युद्ध कराता था,
सीख गया है ये गालियों का संतरी,
लहू-लहू देखा था जिस
पर अब की कुछ बात और है,
तभी शहर अब शहर नहीं रहे।
                                     -साँझ।

Friday, 10 February 2017

आशियाना।

लगता है कही चलो,अपना आशियाना लिए,
सबसे दूर जहाँ सिर्फ मैं रहूँ और कुछ चीज़े,
तसल्ली हो जाये कि लाश इसी मिट्टी की होगी,
और साँसे, इन हवाओ में कही झिलमिल होकर खो जाएँगी,
और तब मैं कह सकूँगा की,
कुछ नही चाहिए मुझ जैसे एक इंसान को,
बस जन्नत भी मेरी इन्ही वादियों में बना दे,
कोई ये नही बोल सकता यहाँ की मेरा वजूद क्या है,
किस औकात से रह रहा हूँ इस सुकूँ में,
पर कुछ कर रहा हूँ मैं ,वही मेरा खुदा है,
वही मेरी इबादत और, वही मेरी ख़ता।

Thursday, 12 January 2017

एक मुस्कान।

कभी इस ज़मी पर उतरा था मैं,
अंजाना,उन सारी चीज़ों का,
जिनका अंदाजा नही लगाते हम,
लेकिन महसूस करने पर उन लोगो का दर्द,
और वो गुज़र-बसर करने की फिक्र
साफ़ तौर पर दिखाई देती है।

उन नन्ही सी जानो में,
जो आगे चलकर हमारे इस वतन में ,
एक ख़ास किरदार निभा सकते है,
पर इस किरदार की मुस्कान तो कही नही दिखती,
क्योंकि इन्हें वो मुस्कान भी नही मिल रही,
जिसके सब हम शुरुआत से हक़दार थे।

इसलिए वो मुस्कान जो किरदार की है,
हमे उन मासूमो के मुर्झाए हुए चेहरे पर देखनी है,
ताकि उनको लगे की वो जितने ख़ास है,उतना कोई नही,
ताकि उनको जो पीड़ा हुई वो किसी और को ना हो,
बस अब इस आस्मां में वो टूटे हुए तारे देखने है,
जिससे उस मुस्कान को क़ैद कर के,
उन बच्चो के हाथ में थामकर ,
कुछ तसल्लीे भरे चेहरों से ही,
हम अपनी ज़िन्दगी का मकसद कायम कर ले।