कितना इंतज़ार होगा अब और,
सब्र की भी एक देहलीज़ होती है,
सूरज निकलने को नही मानता,
चाँद लज्जा से मर गया,
पर जाने को तैयार नही,
कब होगा ये सवेरा।
घरों पर ताले बंद पड़े है,
गलियां सुनी-सुनी हो चली,
गाँव ऐसे उजड़े जैसे बस्ती में आग हो,
परिवार उस बैलगाड़ी में बैठा हुआ,
अपना पुश्तेनी मकान देख रहा है,
झरझर,पुराना,लेकिन यादों का ज़खीरा,
पर कोई नही जानता
कब होगा ये सवेरा।
सब्र की भी एक देहलीज़ होती है,
सूरज निकलने को नही मानता,
चाँद लज्जा से मर गया,
पर जाने को तैयार नही,
कब होगा ये सवेरा।
घरों पर ताले बंद पड़े है,
गलियां सुनी-सुनी हो चली,
गाँव ऐसे उजड़े जैसे बस्ती में आग हो,
परिवार उस बैलगाड़ी में बैठा हुआ,
अपना पुश्तेनी मकान देख रहा है,
झरझर,पुराना,लेकिन यादों का ज़खीरा,
पर कोई नही जानता
कब होगा ये सवेरा।
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