दिन और रात एक सी हो चली,
आँखे खोलकर बिस्तर पर पड़ी रहती है वो,
बूढ़ी,थकी हुई,आलसी पर काम करने को इच्छुक
चलने में बचपना आ गया हैं वापस,
इसलिए लोग भी अब ज़्यादा ध्यान देने लगे हैं,
कितने गुमसुम और फ़ीके हो गए ये दिन,
बगल में अपने अंत की घड़ी में,
रोज़ धीमी-धीमी रेत को रिसते देखकर,
अपना और घड़ी का रिश्ता बरक़रार रखती है,
नानी,दादी कहते हैं जिनको,
ढल रही है उमर,
शायद एक दिन साँझ भी ढल जाये।
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