शहर की नसों में रहते है इंसान,
अलग-अलग फ़र्क़ का औढ़वा लिये,
उसी से पलता है उसी से पालता है,
रिश्ते भी मतलब बनाने लगा शहर
नही तो पहले सिर्फ युद्ध कराता था,
सीख गया है ये गालियों का संतरी,
लहू-लहू देखा था जिस
पर अब की कुछ बात और है,
तभी शहर अब शहर नहीं रहे।
-साँझ।
अलग-अलग फ़र्क़ का औढ़वा लिये,
उसी से पलता है उसी से पालता है,
रिश्ते भी मतलब बनाने लगा शहर
नही तो पहले सिर्फ युद्ध कराता था,
सीख गया है ये गालियों का संतरी,
लहू-लहू देखा था जिस
पर अब की कुछ बात और है,
तभी शहर अब शहर नहीं रहे।
-साँझ।
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