Monday, 20 November 2017

मोती।

पलकों से गिरा था वो,और आँखों को सुस्त कर गया,
बेढंग चेहरा हुआ,इधर जनाब-ए-हलक में सर्द कर गया,
मुझे गवारा नही गुज़रता,
जब किसी की आँखों से,
उन छोटे मोती जैसे आंसुओ को बिखरते देखता हूं,
आख़िर उनकी भी तो कोई कीमत होती है।
पर वो पलकें आज तुम्हारी थी,
आँखे नम थी,चश्मा हटा था,
और एक मुस्कान गायब थी,
मुझे बातें करनी थी,देखना था,
मिलना था,पूछना भी था, 
पर इतनी उम्मीदें मेरा ख़ुदा तो पूरी नही कर सकता,
वो सीधा-सीधा वक़्त का बहाना देकर मुझे फुसला लेता है।
मैं चल दिया अपने घर की तरफ़ चुप्पी साधे,
पर दिमाग में वही था और दिल में वो ही थी,
दरख़्तों के साये में रहकर,
भीनी धूप से बचकर,
हाथ में हाथ लेकर,
जन्नत की सेर करने का ख़्वाब देखते-देखते कब घर आ गया,
पता नही चला,पर धुंध मिट गई और ख़्वाब भी बिखर गया,
लेकिन अब अगर मोतियों को बिखरने का मौका देना है,
तो एक संदूक में उन्हें सँभालकर मुझे दे देना,
ताकि उसकी एक माला बनाकर,
मैं मेरे रब की इबादत कर सकूँ।

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