Monday 30 October 2017

इबादत।

मुझे आज भी लगता है जैसे कल ही हमारी मुलाक़ात हुई हो,
तुम्हारा ओर मेरा नज़रे मिलाना,
रासलीला की उन इठलीयो जैसा लगने लगा है,
जिसमे इरादा तो नेक है,पर तरीक़े लुभावने।
हक़ीकत में जब पहली दफ़ा देखा था,
तब सोचा था,कि कलम की स्याही तुम्हारी मुरीद होगी,
ओर हम वो बाशिंदे,
जो स्याही से ख़ुदा ओर उसके इश्क़ की इबादत करते है।
मैं आज भी वही हूँ जिसे तुमने पहली मरतबा देखा था,
बस कुछ बदला है इतने वक़्त में तो वो है मेरे अल्फ़ाज़,
जो कल तक शायद थोड़े फीके थे,
पर अब उनमे भी श्रृंगार का वो रस है,
जिससे तुम्हारी बाहरी चेष्टाओं का पता लगता है।
तुम्हारी वो कथक की मुद्राये आज भी याद है,
जिसने कंपन पैदा किया था मेरे भीतर,
शाम का वो एक तरफ़ा समाँ,जब अँधेरा नही था,
उजाला नही था,पर तुम थी,और मेरी दो टूक नज़रे,
उस शाम से लेकर आज की रात तक,
कोई गलतफ़हमी नही पाली मैंने,
पर मेरा पीर मुझे आख़िर में,
रोज़ तुम्हारा सजदा करने की इजाज़त दे देता है।

No comments:

Post a Comment