Tuesday 19 November 2019

काश कोई तरीका होता।

काश कोई तरीका होता,
कि अपनी यादों को मिटाया जा सकता,
किसी बंद शीशे की बोतल में क़ैद करके,
संमदर की लहरों के साथ बहाया जा सकता,
काश कोई तरीका होता।

काश कोई तरीका होता,
जिससे हम अपनी यादों को भूला सकते,
कितनी आसान होती ज़िन्दगी,
कि उलझे मसले भी रेशम जैसे सुलझे होते,
फिर तो हम भी साफ़ और सरल होते
एकदम उस काली स्लेट की भाँति,
जिसपे अल्फ़ाज़ लिखे जाते है,
शायद फ़िर इस दुनिया में न तो कोई जंग होती,
और ना ही कोई किसी के मुख़ालिफत होता,
काश कोई तरीका होता।

काश कोई तरीका होता,
कि सब बेफ़िक्र सो पाते,
वरना तो,
ये ज़ख़्म रात में जिंदा हो उठते है,
हाँफते-हाँफते नींद से उठाकर
सहमा देते है,
और ये यूँही रात दर रात चलता है,
अब तो आँखों के नीचे के काले घेरे भी,
साफ दिखने लगे है,
और मेरी ही नहीं आपकी भी कहानी है ये,
आदमज़ात की सबसे बड़ी ना-कामी है ये,
कि हम चाहते हुए भी कुछ नही भूल सकते,
बस, जी सकते है ,उन ज़ख्मों के साथ,
जो होकर भी अंजान है,
और ना-होकर भी मौजूद,
काश कोई तरीका होता।

Monday 11 November 2019

ये ज़माना क्या कहता है।

ये ज़माना क्या कहता है,
क्या ये ज़माना तुम्हें तुम्हारे वजूद को भूलने के लिए कहता है,
जिसकी बिना पर आज तुम इन लफ़्ज़ों को एक शक़्ल दे रही हो,
जिसकी सूरत पर तो किसी को कोई शक़ नही,
मग़र सीरत पर इस ज़माने को बहोत शक़ है।

ये ज़माना क्या कहता है,
क्या ये ज़माना तुम्हें तुम्हारे कपड़ो को लेकर कुछ कहता है,
जिसकी फ़िक़्र तो कभी उस दर्ज़ी ने भी नही की,
जिसके सुई और धागे के जादू से,
कई रेशमी कपडे बनकर तैयार हुए,
मग़र इस ज़माने को तुम्हारे वाल्दैन से ज़्यादा
तुम्हारे कपड़ो की फिक्र 

ये ज़माना क्या कहता है,
क्या ये ज़माना तुम्हें अपने महीने के आख़िरी दिनों में,
उस अचार की बरनी को ना छूने के लिए कहता है,
जिस बात का अर्थ वो भी आजतक तुम्हें नही बता पाए,
जिसकी तफ़सील तो विज्ञान भी अपने दावो में कर चुका है,
मग़र तुम्हारी पाकीज़गी पर इस ज़माने को बहोत शक़ है।

ये ज़माना क्या कहता है,
क्या ये ज़माना तुम्हें घर पर रहकर काम करने के लिए कहता है,
जिनकी इच्छा के विपरीत तुम बाहर जाकर दो पैसे कमाना चाहती हो,
जिससे तुम्हें अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए,
किसी के सामने हाथ ना फैलाने पड़े,
मग़र,इस ज़माने को तुम्हारे बाहर जाने पर बहोत शक़ है।

असल मे ये ज़माना बहोत शक़ करता है,
कभी तुम्हारी सीरत पर,
कभी कपड़ो पर,
कभी तुम्हारी पाकीज़गी पर,
तो कभी तुम्हारे बाहर जाने पर,
मग़र तुम भी इस ज़माने को बता दो,
कि ज़माने आते जाते रहेंगे,
मैं चट्टान सी खड़ी हूं,
चाहे ज़माना रहे या ना रहे,
खुदाहफीज़।