Wednesday 6 September 2017

तुम्हारी लाल साड़ी।

तुम्हारी लाल साड़ी ने कुछ यूं कहा था मुझसे,
कि इश्क़ परवां है तुझ पर,संभलकर रहना,
आँखे ना उठे ताकि शक की बुनियाद बनने का कोई सवाल पैदा ना हो।
लाल रंग बाक़ी रंगों में जिस क़दर छाया हुआ था,
उम्मीद थी जैसे समां इत्र की खुशबु से महकेगा,और
ये रंग किसी और के बैचेन होने का सबब बन जाये,
मैं काम कही कर रहा था,और नज़र,दिल,दिमाग,
ये सब कही और थे, 
सब अपना ताना बाना बुन रहे थे जैसे घर में,
छोटे बच्चे को पहले स्वेटर पहनाने की हौड़ मचती है।
नज़र उसे देख-देखकर मेरे अंदर एक सफ़ेद कैनवास पर उसका स्केच बना रही थी,
तो कही दिल शाम-ए-वक़्त में ग़ज़ल सुनकर सिगरेट का कश लेते हुए आराम फरमा रहा था,
मैंने पूछा दिमाग से कि क्या होगा इस इश्क़ का तो जवाब देता है,
सब्र कर,ज़रा ज़िन्दगी का आगाज़ हो जाये,
बड़ा अचंभा होता है मुझे कि एक दौर की गुफ़्तगू तक ना हो सकी हमारे बीच,
क्योंकि शायद उसके लिए भी रिश्तो के किसी सर्टिफिकेट की ज़रूरत पड़ती हो,
मैं चाहता हूँ की बेनाम हो ये रिश्ता,
ताकि तुमसे बात करने में वो झिझक ना हो जिससे अक्सर परेशां रहता हूँ मैं,
वो नब्ज़ पकड़ना चाहता हूँ तुम्हारी,
क्योंकि रक्त की लय से एक ताल बनाकर रियाज़ करते-करते फ़ना होने का मन करता है मेरा।

Tuesday 5 September 2017

तो वो तुम हो उस्ताद।

तो वो तुम हो उस्ताद जिसने इमारत का नक्शा बनाया,
ख़ाली बंजर ज़मीन बन कर आये थे हम जिसपर कभी,
और आज छोटे छोटे इंसानीयत के बीज़ बो दिए है,
जिसमें संवेदना है,जज़्बात है,एहसास है और करुणा।
मुझे आज भी याद है,
कि कैसे मेरी माँ मेरा हाथ पकड़कर एक लकड़ी की पेंसिल से,
चमकीली काली स्लेट पर,
कुछ लफ्ज़ बनाना सीखाती थी,
वो छोटे से हाथ,
बड़ी मासूमियत से वो सब करते जो उन्हें बताया जाता,
जिसके सहारे आज मैं ये तय कर सकता हूँ ,
कि कितना अदब है मुझमे और कितना सलीका।
छटवीं से लेकर नवीं तक एक शिक्षक मिले,
थे वो संगीत के,
पर उनकी बाते लगती थी जैसे कोई पिता अपने बेटे को एक कैफियत से ज़िन्दगी के मायने सीखा रहा हो,
एक दिन दोस्त दौड़ते-दौड़ते मेरे पास आया,
कहता है तूने सुना“सर का तबादला हो गया",
मैं खड़ा रहा एक सन्नाटे के साथ,
शोक से औतप्रोत,व्याकुल,चिंतित,डरा,सहमा,
ज़मी थी नीचे या नही या खिसक गयी, कुछ पता नही चला,
पर ऐसा लगा जैसे एक बाप अपने काम के सिलसिले में बच्चो से दूर होकर शहर जा रहा है,
मैंने अपना वक़्त सारा फिर दिन का,
आँखों को साफ़ करते करते निकाल दिया ,
जहाँ सिर्फ समंदर का किनारा और कुछ आँख से निकली पानी के छीटे थी,
पर अब महीने में दो बार तो बात हो ही जाती है कभी,
चार साल हो गए है आज,
देखा नही है उन्हें,
पर यकीन है मूझे जल्द मुलाक़ात होगी,
एक शिक्षक ने ,
प्लाटो से लेकर रामानुजन तक,
अकबर से लेकर गाँधी तक और,
शेक्सपियर से लेकर प्रेमचंद तक,
सभी से रूबरू करवाया ,
ये लोग बने महान क्योंकी वो गुरु था जिसने इन्हें महान बताया,
नही तो महात्मा सिर्फ मोहनदास बनकर रह जाते,
और प्रेमचंद सिर्फ धनपत।
शिक्षक उस्ताद गुरु ये सब पर्याय है ज्ञान के,
इल्म के,जिसके सहारे हम अंतहीन समन्दर में रहना सीखते है,
उस्ताद एक आईना दिखाता है,जिसे देखकर एक सच्चाई से रूबरू होते है,कि कौन है और क्या बननें की कोशिश कर रहे है,
अब ये ईमारत मज़बूत बन गयी है,
सभी तूफानों को झेलने लायक,
क्योंकि वो तुम थे उस्ताद जिसने इमारत का नक्शा बनाया,
ख़ाली बंजर ज़मीन बन कर आये थे हम जिसपर कभी।