Sunday 11 December 2016

इंतज़ार।

मैं कभी सोचता हूं कि काश इन सारी जद्दोजहद से कुछ वक़्त के लिए तो आराम मिलता। ज़िन्दगी में तकलीफे आती है तो कभी ऐसा मुकाम भी आता है जब सुकून नसीब हो जाता है, पर कुछ बंधा हुआ नही है ,आज कुछ है तो कल कुछ और। इसलिए जब महसूस करता हूं की शायद आज मैं कुछ अच्छा हूं, जैसे इन सांसारिक मोह मायाओ की कोई जगह ही नही मेरी किताब में, पर कभी ऐसा लगता है कि घुट-घुट कर ही किसी बंद कमरे में हमेशा के लिए क़ैद होकर रह जाऊंगा।
तब ज़रुरत लगती है कि काश कोई हो जिसके कंधे पर सर रखकर हम उसमे खोकर दुनिया की सारी चीज़ें भूल जाए। वो कुछ तसल्ली दे ,में थोड़ा आराम करू। में एकदम डरा हुआ किसी हिरण की तरह उसके सीने से जाकर लग जाऊ। माँ तो नहीं है वो पर कोई ऐसा ज़रूर, जिससे बहुत लगाव है और उसके करीब रहने का एक नशा।
ऐसा नही कह सकते की ये चीज़ गलत है, पर ऐसा ज़रूर कह सकते है कि हर किसी की ज़रूरत कही ना कही, कभी ना कभी तो ये रहती ही होगी। क्योंकि ज़रूरत है ,कोई अंदर की बात जिसे किसी से भी साझा नही किया जा सकता वो हम एक सच्चाई के साथ किसी सबसे ज्यादा सच्चे इंसान को बताये। और मुझे इंतज़ार है उस सांझ का,जिसके ढलने के बाद, एक सवेरा, और एक उम्मीद की किरण ज़रूर निकलेगी।

Monday 26 September 2016

गाथा।

आधी रात का वक़्त है ,
ना कोई सो रहा है,
ना सोने दे रहा है,
तारो वाला ज़माना गया अब,
जब सुकून से हमको सुलाते थे,
अब सिर्फ आतंकी जगाने वाले है,
जो माथे पर बैठकर कभी,
हिन्द-पाक की सरहदों पर अड़े है,
ना सोयेंगे ना सोने देंगे।
जम्हूरियत् के नीचे खड़े है,
सल्तनत् के लिए लड़े है,
यही सैनिक् का पेशा है,
एक फ़ोन अभी भी जाता है,
सबको बता पाता है,
माँ, पत्नी, सब सुनते है,
सकुशल सुशोबित हूँ,
सभी प्रेम से औतप्रोत हूँ,
बाल बच्चा छोटा है,
दिन भर बाप के लिए रोता है,
घरवाली दिलासा देती है,
फिर मै हौसला भेजता हूँ।
यार सभी ख़ास बनते है,
कुछ उनमे भाई बनते है,
सभी से रिश्ते अच्छे है,
बन्दूक से रिश्ते सच्चे है,
वतन में रहकर कुछ लोग,
करते है बड़बोलिया,
एक रात बिताके देख,
देखेगा खून की होलिया,
इस हाल में रहता है ,
सरहद पर गश्त देने वाला,
हम को क्या लगता है सब,
उठा बैठ देने वाला।
सभी को सोना है,
सभी को रोना है ,
एक बार फिर सरहद पर,
हमे सुलाकर चल दिए
               हमे सुलाकर चल दिए।

Thursday 22 September 2016

ज़ख़्मी हूँ।

ज़ख़्मी हूँ तबसे जबसे रिश्ते बिगड़े,
फिर लोगों की समझाईश से उनसे रिश्ते बिगड़े,
बड़ा अपना बनता है वो इस ज़माने में मोहसिन,
खुद से रिश्ते बचाने में अब खुदा से रिश्ते बिगड़े।

जुदा हुआ था वो मुझसे किसी ज़माने में,
गुनहगार बता दिया मुझे उसी ज़माने में,
मेरे लफ्ज़ उस तक कुछ पहुचने ना दिए,
ग़लतफ़हमी का करार हुए हम उसी ज़माने में।

Saturday 17 September 2016

बटवारा

हर्फ़ इंसानियत का उर्दू हिंदी नही होता।
भगवा और हरा कोई धर्म नही होता,

अंदाज़ा था मुझको कोई तो धर्म लाएगा,
मालूम नही था साथ विकट बैर लाएगा।

चाँद पर भी अब तो अधिकार होने लगे है,
खुदको सब राम और कही रहीम कहने लगे है।

ये रंग ये समां अब किस काम का रह गया,
धोती को भगवा,पठानि को हरा करके रह गया।

नाम से अलग करना मर्यादा बन चुकी है,
अली की तो कही हरी की ताबीर बन चुकी है।

पता नही कौन था जिसने दुनिया बनाई,
मंदिर बनाये, मस्जिद बनाई, नवाज़िश नही बनाई।

Thursday 4 August 2016

“ग़ज़ल"

मुनासिब तो नही जीना चाहिए।
दोजख के लिए पीना चाहिए।
               
जहाँ में मुझको लोग काफी नही जानते,
चार कंधे ही लगते है अब चलना चाहिए।

ये मसला शुरू से बहुत संगीन था,
दिल तो बड़ा है माफ़ ना करना चाहिए।

मुझको तू न मिला यार पर था तू वही,
इश्क़ में धोखा मिला संभलना चाहिए।

शक करती थी वो मुझपे उस्तादी से,
मोहसिन की नज़र से बचना चाहिए।

Tuesday 2 August 2016

“मंज़िल"।

मेरे अकेलेपन में तू कुछ इस तरह आई,
जेसे शांत समंदर में लहरे उठकर आ गयी हो,
हौसला दिया ताकि आगे मंज़िल तय कर सकु,
वजूद दिया जिससे मंज़िल में हौसला भर सकु।

दिल को आराम मिलता है तुझसे बात करने में,
इश्क़ मोहब्बत से परे है लेकिन ये सब,
कुछ खास तो नही पर एक ख्वाइश ज़रूर है
खुदा से,
खुशिया जब बाटे तो एक आवाज़ ज़रूर दे देना।

बस कुछ और वक़्त फिर हम साथ होंगे,
इश्क़ में फिर दोनों बदनाम होंगे,
ये मौका हमको फिर नही मिलेगा,
और मिला भी तो फिर क़त्ल सरेआम होंगे।





Tuesday 5 July 2016

नन्हे पैर।

इन नन्हे पैरो की बनावट काफी छोटी है,
लगता है जैसे हाल ही हाल समय में दौड़ना
सीखा है।

दोनों चालो की मासूमियत का अंदाज़ा,
शायद कोई पर्वरदिगार ही बता पाये,
पर मेरे अबतक के ज़िंदगी में ये दो पैर,
मासूमियत का पैमाना पार कर चुके है।

चारो तरफ़ हल्के नीले और सफ़ेद रंग की धुंध
बिछी पड़ी है,
और वो हल्के चमड़ी वाले लाल पैर,
मुझको मजबूर कर रहे है की
मैं धुंध के आरपार उनको देख सकूँ।

ये कुछ पंक्तिया जिसमें दो नन्हे पैरो का ज़िक्र
है कोई खास तो नही,
ये नन्हे पैर जिनका कुछ पंक्तियों में ज़िक्र है
कोई खास तो नही,
पर कुछ मुझे खास लगता है तो वो उनके चेहरो
पर जल्दी दौड़ने की ख़्वाहिश,
जिसके सहारे कुछ हद्द तक मै मेरे ख़्वाबो को
ज़िंदा देख सकता हूँ।

Thursday 23 June 2016

झलक।

पहली नज़र मेरी उससे टकराई
चारो तरफ सन्नाटे का दौर था,
पर वो आई और मेरे अकेलेपन को भीतर सरकाकर अपना वर्चस्व कायम किया।
उसका चश्मा,तीन लटो से होकर गुज़रा था,चेहरे पर पहले मिलन की कसावट साफ़ झलक रही थी,
लेकिन कुछ वक़्त बिता और आमतौर की बाते शुरू हुई।
मै उससे और बात करना चाहता था पर विवशता थी क्योंकि निषब्ध हूँ।
उसके मुख से निकले एक-एक वर्णों के समूह मेरे दिल दिमाग को झकझोर रहे थे,
इसलिए नही की पहली मुलाक़ात थी,
इसलिए क्योंकि मै उसमे और डूबता जा रहा था।
मै चाहता था वो और रुके पर उस दिन नसीब ने साथ नही दिया,
इंशाअल्लाह फिर मुलाक़ात होगी, सवार है हम भी, सवार हो तुम भी।

Friday 17 June 2016

नज़रिया।

धूप का नामोनिशा हो सकता है इन छोटे
रास्तो वाली वादियो में,
वो किसी की सगी नही पर कुछ है तो वो
 मतवाली।

कटीले-नुकीले रास्तो के कोनो पर टिके हुए
वो मीनारों जेसे भययुक्त पेड़,
जो अपनी ज़िंदगी रखने की रोज़ प्रार्थना करते है ,
कि या अल्लाह एक दिन और बख्श दे ताकि
मुसाफिर देखकर फिर कोई मुझसे मोहब्बत
करे और करता ही जाएँ ।

लाखो मौतों की ज़िम्मेदार भी इन्ही नेक
 लोगो के बीच दिखाई देती है ,
थोड़ी पहाड़ो से सटी हुई और हज़ारो मीटर
समंदर से ऊँची ।

और इन सबके बराबर है कोई तो वो मुसाफिर
जिसे ज़िन्दगी छीनने का कोई ऐतबार नहीं
जिसे अपना नाम,निशान उस जगह गढ़ना
है
और जिसे अपनी ज़िंदगी उन तमाम लोगो की
तरह नही बनानी जो रोज़ थोडा थोडा मरकर
इस जहां में नमक की तरह मिल जाते है।

ये रस्ते ये पेड़ ये पहाड़ ये धुप सिर्फ उन लोगो
के लिए है , जो मौत का कफ़न ओढ़कर ,अपनी
ज़िंदगी सचमे ज़िंदगी बनाने निकले है।
अपनी ज़िंदगी सचमे ज़िंदगी बनाने निकले है।


Monday 16 May 2016

न्याय का इंतज़ार।

भारतीय न्यायपालिका, भारत का एक राजनीतिक
दल, और एक विचारधारा, इन सभी के बीच 
लगातार आठ सालो से पीस रही एक औरत।
जिसका नाम है साध्वी प्रज्ञा सिंह, तन पर 
भगवा रंग का झोंगा और 2008 के समय का
वो तेज जिसको महाराष्ट्र एंटी टेररिस्ट स्क्वाड 
ने नेस्तनाबूत कर दिया। कांग्रेस की सरकार 
ने सिर्फ इसलिए उस औरत को सलाखों के 
पीछे डाला क्योंकि वो एक साध्वी थी और 
भगवे रंग की विचारधारा की समर्थक थी। 
पुरे आठ सालो में कोई ठोस सबूत की पुष्टि 
नही हो पायी। पर पुलिस द्वारा साध्वी को इतना
प्रताड़ित किया गया की आज उनके कमर के
निचे का पूरा हिस्सा लकवे से ग्रस्त है। आप 
खुद सोचिये क्या बीती होगी उस पर जब प्रताड़ना
की तलवार उनपर चली। और सिर्फ एक कारण
जिसकी वजह से ये सब हुआ, “भगवा आतंकवाद"। जबकि आतंकवाद का कोई रंग
नही होता लेकिन कांग्रेस ने इसे सिद्ध करने का
इतना प्रयास किया जिसका परिणाम आज साध्वी 
प्रज्ञा की ये ये हालात है। मुझे शर्म आती है
न्यायपालिका पर , कांग्रेस पर, और उन दैत्यों पर
जो जनता की सेवा के लिए नियुक्त किये गए है।
इस बार की सरकार से मुझे उम्मीद है, शायद साध्वी
को न्याय मिले।

Wednesday 11 May 2016

घर में बर्तन बजने वाले है।

आख़िर आज वो दिन आ गया, कई सालो बाद
मोहल्ले में शहनाई बजेगी ,कभी बजी थी पर
 उसको सफ़ेद बालो वाली अम्मा भी भूल गयी,
लेकिन् अब जश्न होगा क्योंकि घर में बर्तन बजने वाले है।

माँ ने अपनी आस भरी नज़र से बेटी को कहा,
लड़के वाले आने में होंगे जा दीदी को तैयार करदे,

छोटी दौड़ते-दौड़ते रोज़ के मुक़ाबले आधे
 समय में ऊपर पहुची, माँ की फ़िक़्र बहन तक
 पहुचाई और बड़े किशोरी मन से दीदी के
 नाख़ून लाल करने शुरू कर दिए।

बड़ी बड़े बेचैन मन से अपनी बैचेनी को बड़ा
रही थी, शायद ये उसकी लालिमा में छुपी किसी
 तरह की चिंता दिखती है।

बाबा के दिन, दिन-ब-दिन घटते जा रहे है,
घर के राशन पानी की व्यवस्था कैसे होगी, क्या
ये चिंता है अपने बाबा की बड़ी बेटी को?

छोटी की उम्र अब किशोरावस्था के
अंतिम चरण में पहुँच गयी है, उसकी विवाह
 की शहनाई कैसे बजेगी ,क्या ये चिंता है
अपनी छोटी की ज़िम्मेदार दीदी को?

चिंताए ,फ़िक्रे ,बेचैनियां ये सब लाज़मी है
पर अंत में समाज और खुद परिवार कह देता है,
घर में बर्तन बजने वाले है।







Monday 9 May 2016

“निशब्दता"।


गोल मिट्टी के घरोंदे, जो कभी पक्षीयो का आशियाना हुआ करते थे ,आज मेरे नज़रो की तस्वीर बन गए है।

उठी हुई लेहरो पर सवार न हो सका ,ना ही नदी के जलस्रोतों में अपनी छाप छोड़ सका।

घर पर जब रिश्तेदार आते तो मासूमियत की चादर ओढ़े गले के कंठो से स्वर निकलना बंद हो जाते थे।

सूरज की तपिश भरी लहर से डर लगने लगा था, बारिश के वक़्त की गड़गड़ाहट मानो आत्मविश्वास हिला देती थी।

शाखों से फल बड़ी मिन्नतों से गिरते जेसे दुनिया पर एहसान कर रहे हो,और उन्ही पत्तो की बेलाये बडे सम्मान से उड़ान भरती थी।

वक़्त मुझे काटने के लिए दौड़ने लगा,घडी हथेली पर फाँसी जैसी लगती थी मानो फंदा खीचा और वक़्त ठहरा।

गलियो में वो ची-ची-चु-चु करते हर बाल मनुहार जिनकी खिलखिलाहटे अब मुझे ओतप्रोत नही करती।
वो शहर की चकाचौंद करने वाली सडको का भी अब कोई फ़र्क़ नही पड़ता।

ये निशब्धता की वाणी कबतक चलेगी, कब वो शब्दता की मिश्री मुझमे घुलेगी, इंतज़ार है मुझको मेरी निशब्दता के अंत होने का।



Sunday 8 May 2016

मानव् प्रवत्ति।


एक छोटे शहर में दौ लड़के रहते थे। दोनों माध्यम परिवार से ताल्लुक रखते हुए। साथ गाते, घूमते, कुलमिलाकर बहुत मस्ती करते थे। पवन जो काफी हँसमुख किस्म का पर थोडा शर्मीला। दूसरा अमित जिसे पढ़ाई में बहुत हस्तक्षेप था। दोनों की ज़िंदगी अच्छी चल रही थी। पर तब वो बचपन की सीढ़ियों पर सफ़र कर रहे थे। अब वे किशोरावस्था में है, एक ऐसी उम्र जब इंसान लोभ प्रकट करता है। इस काल कीं शरीर की कसावट उनमे साफ़ झलकती है। फिर कुछ समय बीता। पवन एक ऐसा लड़का था जिसे लोभ, खुदगर्ज़ी, इन सबका मतलब भी नही पता था। दूसरी तरफ अमित जो इन्ही वैचारिक हथियारों के साथ पवन को धोखा दे रहा था। यहाँ बड़े पैमाने वाला धोखा नही है पर इतना ज़रूर था की पवन उससे नफरत करने लगे। दुसरो के सामने और उसके पीछे बुराइयो की धारा बहता था। पवन से अपने काम निकलवा लेता था लेकिन उसके काम नही करता।
 ये बाते पढ़ने में जितनी आसान है उतनी की विकट भी,क्योंकि इन्ही सारी चीज़ों से हम कभी न कभी गुज़रे होंगे ,जाने में या अनजाने में। यही मानव् प्रवत्ति खोकला करके रख देती है एक विकसित मानव को। उस समय में वो इस भ्रम में रहता है की वही सर्वश्रेष्ठ है वही राजधीश है। और उसके यही गुण हिटलरशाही को बढ़ावा देते है जिसका मतलब साफ़ तौर पर मनमानी से है। पुरे पंक्तियों का अर्थ सिर्फ इस बात में निकलना की व्यक्ति अपना ईमान एक बार भूल सकता है लेकिन वो मानव् प्रवत्ति नही जिसके  वजह से वो लोभी, खुदगर्ज़, बन जाता है। असामाजिकता का बिंदु यहां नही आता क्योंकि असामाजिक होना कोई बुराई नही है। स्वार्थ और लोभ दोनों जिसके समक्ष किये जाते है उनको आतंरिक नुकसान तो होता ही है लेकिन असामाजिक होने पर कोई नुकसान नही कोई बेर नही। बात पूरी अटपटी है लेकिन गौर से पढियेगा तो समझ आ जायेगी और कही न कही आप खुदके ज़िंदगी के साथ इसको जोड़कर भी देखेंगे।

“सफरनामा"

छोटी-छोटी बाते ज़िन्दगी में बहुत अहमियत रखती है।हमारे रिश्ते ,हमारी यादे ,इन सभी चीज़ों में कुछ खट्टी और कुछ मीठी बाते दोनों बराबर का समन्वय रखती है।यही कुछ बाते हम करेंगे एक घर में जिसका नाम है “साँझ"।