Friday, 6 October 2017

ये शाम।

ये शाम भी कितनी धुंधली है,
कि बताती नही कुछ,
क्या करे इस शाम-ए-वक़्त में,
जब बोरियत का लबादा ओढ़े बैठे रहते है हम, 
इंतज़ार करते हुए उस सूरज के डूबने का जो सुबह घर की चौखट लाँघकर निकला है,
और अब जा रहा है हाथ में खिलौना लिए ताकि घर की उस तिलिस्मी खिड़की से,
रूठे चेहरों की कोई शिकायत ना सुननी पड़े।
मैं जब शाम को उस पहाड़ को देखता हूँ,
जिसपर सफ़ेद कोहरे की एक परत बिछी रहती है,
तो लगता है ,कि काश मेरी भी शाम ऐसे ही किसी पहाड़ पर,
धुओं के आशिको के साथ ओझल हो जाये।
एक नदी हो,
जिसके चारों तरफ कम ऊँचाई वाले पेड़-पौधे लगे है,
और सामने फ़िर वही शाम,
जब पानी में पैर डालकर उस सूरज को धीरे से अलविदा करने का मन करता है मेरा,हाँ,
ऐसी शाम की ख्वाईश रखता हूँ मैं।
शाम हो चली अब,
सूरज भी अपने घर चला गया,
जो कुछ कसर बाकी रह गयी थी अँधेरा होने में,
वो भी अब पूरी हो चुकी है,
अब शाम नही,सूरज नही,
किसी का इंतज़ार है अभी तो सिर्फ तारों के आने का,
जो बस आते ही होंगे।

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