Thursday, 27 December 2018

ज़रूरत।

ये रातें यूँ ही नही कटने वाली,
इन्हें किसी की सख़्त ज़रूरत है,
कितनी बातें करूं इस एक चाँद और लाख तारों से,
अब तो वो भी मेरी बातों को सुनकर,
बस जम्हाई लेना जानते है
और एक तरफ़ तुम हो,
जिसे मेरे आखिरी अफ़साने में कुछ अलग महसूस हुआ,
मुझे लगता है,
वो शायद वक़्त का तकाज़ा ही होगा,
जिसने उसे अलग बना दिया,
बाक़ी मैंने तो पूरी साफ नियत,
और पूरे होशोहवास में लिखा था,
बस यार तुम उस आखिरी अफ़साने को लेकर परेशां मत होना,
तुम्हें मुतज़सीस करना मेरा मक़सद कतई नही,
मैं तो बस लिखता हूँ,
जो जी मे आता है वो लिखता हूँ,
इन अंदरूनी अफ़सानों की शक़्ल में,
जिसमे ‘तुम’ कोई रहता है और ‘मैं ’कोई,
कहानी आगे बढ़ती जाती है,
और ये रातें यूँ ही कटती जाती है,
क्योंकि इन रातों को,
इन लफ़्ज़ों की सख़्त ज़रूरत है।

Tuesday, 13 November 2018

तुम मुझे ले जाना अपने घर।

तुम मुझे ले जाना अपने घर,
ताकि तुम्हारे घर के कोनो में रखीं
एक-एक चीज़ को मैं बा-इज़्ज़त याद कर सकूँ,
ताकि तुम्हें हमारा घर 'अपने' घर के मुक़ाबले
ज़रा भी पराया ना लगे,
ताकि तुम्हारे मन में वो नई जगह जाने के बाद आने वाली कसक महसूस ना हो,
जिससे अक़्सर परेशां रहते है कुछ लोग,
सवाल रहा वालिद-वालिदा का,
तो उनके जैसे हमशक्ल तो नही ला सकता मैं,
मग़र थोड़ा बहुत सीख सकता हूँ,
तुम्हें संभालना,
चंद दिनों में,
बस तुम मुझे ले जाना अपने घर,
जिससे मैं उस घर के कोनों में रखीं हरेक चीज़ को बा-इज़्ज़त याद कर सकूँ।

Thursday, 1 November 2018

सब कुछ है,बस तुम नही।

इस चाँद की चांदनी में,
ढूंढ रहा हूँ तुम्हें,
तारों से पूछ रहा हूँ तुम्हारा पता,
तुम्हारी गली,शहर,इलाका,
सब धीरे-धीरे जान रहा हूँ,
पर ये तारे खुले तौर पर कुछ कहने से कतरा रहे है,
क्या तुमने उन्हें डराकर,
धमकाकर,चुप करवा दिया है!
मैं भी नही चाहता तुम्हें ढूंढना,
पर उस बेचैनी का क्या,
जो दिल के दरवाज़े पर दस्तक देती है,
रोज़,दबे पाँव,धीरे से,
और फिर तुम्हारे बारे में पूछती है,
खड़ा रहता हूँ आँखे नीची करके,
क्योंकि जवाब नही होता,
कैसे समझाऊं उसे तुम्हारी ज़िद,
वो तो बस मासूमियत से,
तुम्हारी खोज में निकल जाती है,
बस!अब तुम आ जाओ,
अब और ये आंखमिचोली का खेल मुझसे तो नही खेला जाता,
पूछता हूँ चाँद से,शायद कही कुछ सुराग़ बता दे,
इस चाँद की चांदनी में,
जहां तारे है,चांद है,पहाड़ है,आसमां है,सब कुछ है,
बस तुम नही।

Tuesday, 23 October 2018

छत।

मैं आज भी जब अपने नज़र की,
उस तिलिस्मी खिड़की से झाँककर देखता हूँ,
तो मुझेे चार दीवारें, एक आँगन,
और एक छत दिखाई देती है।
जिसमे से आँगन को निकाल भी दूँ
तो कोई बड़ी बात नहीं होगी,
लेकिन कुछ ऐसा है इन तीनों में,
जो आज आप शायद ही महसूस कर रहे हो,
मुंडेरे होती है चारों तरफ़ जिसके,
ताकि घर का छोटा बच्चा खेलते-खेलते
लड़खड़ाकर गिर ना जाए,
सुबह बाबा अपना प्राणायाम करने आते थे जहाँ,
भोर की उस चिलचिलाती सर्दी में,
जब रिश्ते हमारे लोगों से ज़्यादा,
रज़ाइयों से बना करते थे,
फ़िर माँ किसी रविवार आती थी,
मुझे लेकर,छत पर,हाथ बटाने,
और मैं आखिर तक,
मुँह फुलाये बैठा रहता था,
देखते हुए,उन सूख रहे साबूदाने के पापड़ों को।
मेरा बचपन भी छत की उन मुंडेरों पर बैठकर,
ढलते सूरज को देखते हुए निकला है,
जहाँ चिंटू-मिंटू रोज़ एक नए खेल को,
इज़ाद करके,उसको अंजाम तक पहुँचाया करते थे,
जहाँ चिंटू की बड़ी बहन पिंकी,
चुपके-चुपके किसी से छत के एक कोने में,
अपना छोटा-सा डब्बा लेकर,
बतियाया करती थी।
पर फिर मैं,और चिंटू-मिंटू सब बड़े हो गए
और अपने घोसलों से निकलकर,
तालीम लेने के लिए,
बाहर आ गए,जहां वक़्त का बहाव,
रक्त की लय जितना होता है,
बहुत तेज़।
अब उस ढलते सूरज को देखने का भी कोई फायदा नही,
क्योंकि अब वो मुंडेरे नही है,
और ना ही वो छत,
जहां बाबा भोर में प्राणायाम करने आते थे,
अब तो यहां साबूदाने के पापड़ भी दुकानों पे मिल जाते है,
चिंटू की बड़ी बहन को भी अब छुपकर बाते नही करनी पड़ती,
कुछ खास नही बदला इतने वक़्त में,इन शहरों में,
बस अब छते सिमटकर रह गई है कुछ पुराने शहरों में,
कुछ देर बाद,
ये वक़्त भी सिमटकर रह जायेगा,
ख़ुदाहफ़ीज़।



Tuesday, 18 September 2018

आपकी लाड़ली।

जब मैं घर से निकली थी,
तो ज़ेहन में कई सवाल थे,
चिंताएं थी,माथे पर लकीरें भी थी,
और हो भी क्यों ना,
शहर बदलने के लिए,
दिल और दिमाग दोनो की रज़ामंदी तो चाहिए न,
और फ़िर मैं ठहरी घर की सबसे नटखट क़िरदार,
जिसकी एक ख़्वाईश पर,पूरे घर को,
मीना बाज़ार की तरह सज़ा दिया जाता था,
पर अब कुछ तो तब्दीलियत-सी आ गयी है,
क्योंकि ये घर की नटखट किरदार अब घर से थोड़ी दूर है।
घर पर जब तक दो-चार बार बात न हो जाये,
तब तक उन्हें लगता ही नही कि मैं ठीक हूँ,
मेरी खाने की चिंता,मुझसे ज़्यादा तो उन्हें रहती है,
बाबा का रोज़ एक कॉल आफिस से आता है,
जैसे रोज़ उनके लिए मैं एक सुकून की हाज़री हूँ,
वो बहुत फ़िक़्र करते है मेरी,
माँ ने तो अब वीडियो कॉल करना भी छोड़ दिया है,
ताकि मुझे देखकर उनके आंखों में आंसू न झलक पड़े,
पर वो ही जिनको हमेशा फुर्सत रहती है मेरे लिए,
तभी तो वो मेरा हालचाल पूछने में कोई कसर नही छोड़ती,
सुबह के नाश्ते से लेकर रात के खाने तक,
मुझे कुछ याद रहता हो या नही,
लेकिन उन्हें सब याद रहता है,
पर मैं भी आपसे कुछ कहना चाहती हूँ माँ-बाबा,
कि अब आपकी ये गुड़िया,
बड़ी और ज़िम्मेदार दोनो हो गयी है,
मुझे मालूम है वैसे
कि आपके रोज़ दो-चार कॉल आएंगे ही आएंगे,
और इससे मुझे कोई तकलीफ़ भी नहीं,
आपकी आवाज़ सुन लेती हूँ,
तो लगता है जैसे दिन की सारी थकान
एक पल में दूर हो गयी हो,
बस आप हमेशा खुश रहिये,
मैं भी यहाँ काफ़ी खुश हूँ,
पढ़ लेती हूँ,थोड़ा घूम लेती हूँ,
एक किताबखाना है,
जहाँ किताबें मेरी दोस्त है,
उनसे बात कर लेती हूँ तो ख़ालीपन भी नही लगता,
बस अब रात हो गयी है,
कल सुबह आपके कॉल का फिर इंतज़ार करूँगी,
शब्बाख़ैर।

Saturday, 25 August 2018

करवटें बदलती गयी रात भर।

करवटें बदलती गयी रात भर,
बस नींद का नामोनिशां नही है,
कुछ तस्वीरें है धुंधली,
तो कहीं ख़्वाब है उलझे।

पुराने अख़बारों जैसे पुराने ख़्वाब,
जिनसे रद्दी की महक़ भी,
केवड़े-सी लगती है,
बस आ पड़ते है वो बेवक़्त,
जब सारा ज़माना नींद में रहता है,
और हम उन्हीं ख़्वाबों की 
किसी सकड़ी गली में आँखमिचौली खेला करते है।

एकदम बेसुध होकर,
कि ये भी पता नही चलता,
कब तुम्हें ढूंढ़ते-ढूंढते सवेरा हो गया,
और ख़्वाब ने धीरे से अलविदा करते हुए कहाँ,
“फिर आऊँगा रात के दूसरे पहर में"
ताकि करवटें बदलता रहूं मैं,
और नींद का नामोनिशां भी ना रहे।

Wednesday, 15 August 2018

72 साल की आज़ादी।

शक़ किस बात का है,आज़ादी का!
अरे,अपने पैरों पर चलकर हँस रहे हो,
और किस बात की आज़ादी चाहिए,
जो मन कहता है,वो कह देते हो,
कोई रोक नही कोई टोक नही,
इससे बड़ी आज़ादी और क्या होगी,
फ़र्क़ बस इतना है,कि पहले इंसान बोलते थे,
हज़ारो की जमातो में,
बस अब वही लफ्ज़ ज़ुबाँ से निकलने के बजाय,
कीबोर्ड के खटखट होने से निकलते है।
72 साल हो गए,आज़ाद रहते हुए,
पर कम्बख़्त हम इंसानों में से, कुछ इंसा इतने आज़ाद हो गए,
कि अपनी हदे भूलकर,फिर वो शैतान हो गए,
और भूल बैठे,अपने ईमान,इंसानियत,और इल्म को,
वैसे करते वो भी है खटखट आज के दिन,
72 साल के आज़ाद देश में मेरे।

Wednesday, 1 August 2018

अभी जान बाकी है तुम में।

ग़र हो परेशां ,तो बैठो ज़रा,
चैन की साँसे लो,फिर बताओ ज़रा,
ख़ुद को अभी हवाले मत करो,
अभी जान बाकी है तुम में,
हौसला,जुनून,इन सब को तो ले आएंगे कोड़े दामों में,
बस पहले तुम संभल जाओ,
क्योंकि अभी जान बाकी है तुम में।
ग़र हो परेशां,
तो ख़्यालों को खंगाल लो एक दफ़े,
शायद कही,किसी दबे कोने में,
एक ख़्याल सुलग रहा हो अब तक,
तो दबा देना उसे अपने हाथों से,
कि ख़्याल भी मिट जाए,
और वो माथे पर पड़ी शिकन भी ख़त्म हो,
जिससे अक्सर परेशान रहते थे तुम।
बस अब रुकना मत,चलते रहना बेफ़िक्र,
ग़र फिर भी तकलीफ़ हो,तो बैठ जाना,
और सोचना सिर्फ़ दो बातें,
कि कहाँ से आये और कितने दूर तक,
फ़िर शायद याद आ जाये तुम्हें,
तुम्हारा वो नूर,जो कभी था,
लगेंगे कुछ चंद दिन,हफ़्ते, महीने या साल,
बस चलते रहना मुसलसल,क्योंकि,
अभी जान बाकी है तुम में।

Monday, 25 June 2018

नायाब।

बहती हुई ठंडी हवा,
जो चादर की ज़रूरत को कम्बल में बदल रही है,
और बदलता हुआ हवा का मिज़ाज 
जो तुम्हारे इत्र को मुझ तक पहुँचा रहा है,
वही ख़ुशबू,जो तुम्हारे हाथों से आई थी कभी,
बेसुध करनी वाली,आज मुझ से खेल रही है।
याद है वो दिन भी,
कि कैसे मैंने तुम्हारीे आँखों से,आंसूओं को गिरते देखा था,
टूटती माला के मोतियों को कभी,बिखरते जैसे देखा था।
तब हलक में कुछ नही जाता सिवाय बैचेनी के,
और दिल भी अपने सबसे भारीपन में रहता है,
मानो,कई किलो का सिलबट्टा रख दिया हो सीने पे,
वैसे हवाएँ अब और तेज़ चल रही है,
हमारी कहानियों को सुनने के बाद,
कि बता रही हो कुछ नायाब,
तुम आना ज़रूर मेरे शहर,
तब शायद ये हवाएं,
तुम्हे ही बता दे कुछ नायाब।

Sunday, 27 May 2018

नस्तलिक़।

कितना अजीब है,
कभी तुम्हारे सामने आकर बोलने की हिम्मत नही हुई मेरी,
और यहाँ,
पूरी बेशर्मी से अपने हाल-ए-बयाँ कर देता हूँ मैं,
शर्मिंदगी कैसी और! 
क्या गुनाह है लफ़्ज़ों की सूई में,
तुम्हे बुनना!
एकदम धीरे-धीरे,
जैसे क़लम को दवात में भिगोकर
नस्तलिक़ लिखी जाती है।
एक कशिश रहती है उसमे,
और थोड़ी नज़ाकत भी,
जिससे चमकती है नस्तलिक़,
एकदम उस चाँद जैसे,
जिसने अभी-अभी आईना देखा है,
अपनी लटों को सरकाकर,
और जा रहा है अब,
दूर,बहुत दूर।

Friday, 13 April 2018

अजमेर डायरीज़।

अजमेर के चकाचौन्द करने वाले बाज़ारो से लेकर,
रिक्शा खीचने वाले आदमी तक,
सब देखने लायक है यहाँ,
अकबर का बनवाया हुआ किला,
आज भी इस्लामिक वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है,
चार बाग़ है,जनता दरबार है,
जिसके चारों ओर कमरे बने हुए है,
आज के इस तकनीकी भरे जीवन मे इतिहास के वो अंश बड़ी सहजता से संजोकर कर रखे गए है,
जिसमे सिक्के,हथियार,धर्म,जीवन,शिलालेख,जो पत्थर,ताम्बा पीतल सोने,चांदी सभी पर पाए गए है,और
तस्वीरे ,मूर्तिया ,खुदाई में निकली हुई कई चीज़े है जो ये सोचने पर मजबूर करती है,
कि तब के फ़नकारों की कुछ बात ही अलग होती होगी,
तभी तो मुग़लिया दरबार में
तानसेन और बिहज़ाद की औकात सबसे बढ़कर थी।

अजमेर से लगभग चार कोस की दूरी पर बसा है,
प्राचीन भारत का वो इकलौता शहर जहाँ ब्रह्देव का इकलौता मंदिर है,
ब्रह्मनगरी अर्थात पुष्कर।

पुष्कर में ऊँटगाड़ी में बैठने के बाद पहली दफ़े मालूम पड़ा,
कि ऊँट की सबसे तेज़ रफ़्तार उस वक़्त रहती है जब वो ढलान चढ़ता है,और सबसे धीमी तब,
जब वो टेक उतरता है।

शाम के वक़्त,पाक साफ़ होकर,
हल्का-सा इत्र लगाकर,
जब मदार गेट से चलते हुए आप दरगाह की तरफ़ बढ़ते हो,
और रोशनी से नहायी हुई गालियाँ देखते हो,
जहाँ कपड़े,मिठाइयां,
और सबसे ख़ास ग़ुलाब,
जो अजमेरी सरकार की दरगाह पर चढ़ता है,
सब अपनी पेशकश लिए,
सभी हजरातों के सामने बिकने के लिए तैयार रहते है, 
क्योंकि उनका आख़िरी सफ़र उन्ही के पैरो में है,
और उन्ही के आगे।

अंदर घुसते बराबर,आपको ये मालूम पड़ जाता है,
कि क्यों इतनी दूर-दूर से लोग ख़्वाजा गरीब नवाज़ के पास अपनी अर्ज़ियाँ लेकर आते है,
गरीब से लेकर अमीर,
और भले से लेकर बीमार,
सब आते है, दुआ-ओ-असर करने के लिए।

अजमेर वैसे तो मुगलकालीन समय का शहर है,
जहाँ सिक्को का भंडार हुआ करता था,
पर पिछले चौबीस घण्टो से मैं,
10₹ का एक भी सिक्का नही चलवा पाया,
या तो फिर वो लड़खड़ाकर,
अजमेर के बाज़ारो में कही खो गया है।

अजमेर के खान-पान के क्या कहने,
इतने अदब से,पान से लेकर कचोड़ी तक,
सब यहाँ मोहब्बत की थाली में परोसा जाता है,
और फिर आख़िर में,गुलाबरास में डूबी हुई सॉफ्टी के साथ एक मुफ़्त मुसकान देकर वो आपको अलविदा करता है।

सफ़र अब ख़त्म हो रहा है,
मतलब उन अनजाने चेहरों की चमक अब नही दिखेगी,
होगा फिर कभी ऐसा मंज़र,
जब धीरे से,
दबे पाव निकलने का मन करेगा मेरा,
बस तब शहर अलग होगा,
और उसके ख़िल्क़त-ए-शहर भी।

Thursday, 12 April 2018

तुम हो।

“तुम मेरे लिए क्या हो?"
क्या तुम वो मीठे पानी का झरना हो?
जिसे देखने के बाद राहगीर अपने मन में,
एक सुकूँ की चादर ओढ़कर सो जाता है,
वैसे ही जैसे,किसी ज़माने में,तिरछी नज़रो के सहारे,
तुम्हारी एक झलक लेने के लिए परेशां रहता था मैं।

क्या तुम उस पुराने रखे हुए बरगद के पेड़ की छाँव हो?
जिसके करीब रहकर सर पे धूप नही पड़ती,
और डर नही रहता,
उस लू का जो गरम हवा के थपेड़े अपने साथ लाती है।

क्या तुम मेरे लिए वो पथिक हो?
जो मेरा हाथ थामकर,
पगडंडी पार करवाता है,
और हौसला देता है,
ये कहकर की,
‘ज़िंदगी की तकलीफों को यूँ हँसकर दफ़ा कर दे,
जैसे वो तेरी मेहमान है और तू उनका मेज़बान।'

पर आख़िर में ये ज़रूर है,
कि तुम हो।:)

Saturday, 7 April 2018

हिचकी।

कहाँ हो तुम?
क्या तुम्हें मेरी याद आती है?
अच्छा है,अगर नही आती तो,
क्योंकि जितनी मुझे आती है,
उसका हिसाब लगाना तुम्हारे बस की बात नही।
क्या तुम्हें हिचकियाँ आती है?
अच्छा है अगर आती है,
क्योंकि हर हिचकी जो तुम्हारे भीतर आती है,
सब का ज़िम्मेदार सिर्फ़ मैं और
मेरे भीतर का एक-एक कतरा है,
जो याद करते-करते हर रोज़ दफ़्न होता है,
कमबख़्त को कितना भी समझाओ,
सुधरना ही नही चाहता,
बस डूबना चाहता है,
उस समंदर में जहाँ एक परिंदा भी पर न मारता हो,
तैरना नही आता,
बस एतमाद है,
कि तुम आओगी बचाने,
और नही आई तो ज़्यादा कुछ नही होगा,
बस फिर तुम्हे कभी हिचकी नही आयेंगी।

Monday, 26 March 2018

फ़क्र

कुछ कहना चाहता हूँ,सुनोगी?
शायद तुमने सोचा होगा, कि पिछले कुछ दिनों से,
क़लम की स्याही नही उकेरी किसी पन्ने पर,
लेकिन सच कहूँ तो,
इस रुकावट का कोई जवाब ही नही,
पर इतना ज़रूर है,कि आज भी,
इन हर्फ़ों को पढ़ते वक़्त,
लगता है, जैसे सामने तुम ख़ुद बैठी हो,
और मैं तुम्हें ये ख़ुद सुना रहा हूँ।
मुझे आज भी याद है वो झलक,
हाँ, वही पहली झलक, तुम्हें भी याद है ना,
दो साल होने को आ रहे है,
उबड़-खाबड़ रास्तो से भरे दो साल,
फ़िक़्र से भरे दो साल, 
पर फ़क्र से भरा हुआ मैं, कि मुझे तुम मिली,
अब ज़्यादा वक़्त नही है हमारे पास,
बस कुछ चंद राते और है,
फिर किसी और जगह की तपती धूप के सहारे,
सफ़र पे निकल जाने का मन करेगा तुम्हारा,
और मैं तेज़ हवा से लड़ता हुआ एक पेड़ के नीचे जाकर बैठ जाऊंगा,
क्योंकि फिर आँधी के बाद वही मद्धम शाम मेरे सामने होगी,
चाय होगी, सिगरेट होगी, किस्से होंगे,
जिनमें कुछ तुम्हारा ज़िक्र होगा,
तो कुछ हमारा।

Thursday, 15 March 2018

तांगेवाला।

तांगेवाले को देखा था बचपन में,
जब बाड़े की सड़कों से,
तांगा दौड़ाते हुए,
टाउन हॉल के बगल से निकालता था वो।
आज टाउन हॉल है,
तांगा भी है,
और तांगेवाला भी है,
बस कुछ नही,तो वो तब की सवारी,
जिसे तुगड़क-तुगड़क की आवाज़ सूनने का शौक़ रहता था,
अब कोई नही है उस ज़माने का,
जो है,
वो भी तांगेवाले की तरह एक दिन ओझल हो जाएंगे।

Tuesday, 13 February 2018

काला।

आज अठारह साल से ज़्यादा हो चुके हैे,
पर लोगो ने बताना नही छोड़ा कभी,
कि मैं काला हूँ।

मालूम होने के बावजूद भी बताते है,पर,
ना तो मै उस काले रंग पर चाक घिसकर कुछ उकेर सकता हूं,
और ना ही उस काले रंग में चूना मिलाकर,
उसे सफ़ेद कर सकता हूं,
बल्कि वही अगर साँवला होने के लिए मान जाए,
तो भी मैं उससे पाँच मिनट की दरख़्वास्त ना करु,
ये फ़क्र है मुझे मेरे काले होने पर।

लोगो में इतना उतावलापन रहता है,
एक काले को ये महसूस करवाने का कि वो काला है
अरे,इसी खाल के नीचे,
कई नवाज़,और कई ज़ाकिर पैदा हुए,
जो शायद कई गोरो से आगे है,
तो फिर क्या काला और क्या गोरा।

दरसल इतना काला है ना आज सब,
कि गोरों के ऊपर भी धुँए की एक परत दिखती है,
कुछ सालों में जब सूरज की रोशनी से कैंसर होने लगेगा,
तो सबसे पहले गोरे मरेंगे,
ज्यादती दुश्मनी नही है गोरो से,
बस जिन्होंने पूरी कौम को बदनाम किया,
वही मेरे शिकार है।

Wednesday, 17 January 2018

कहानी।

लग रहा है जैसे किसी मूवी का क्लाइमेक्स ख़त्म हो रहा हो,
फ़िल्म की वो आख़िरी सफ़े,
जिसमे एक परिंदा अपनी चिड़िया को ढूंढता हुआ,
सफ़र पे निकलता है,
और जाता है काली पहाड़ी के पीछे,
जैसा उस ख़त में ज़िक्र था,
गुमनाम रास्ते से होता हुआ,
हवाओं से पूछते,भरी फ़िक़्र के साथ,
कि उसकी चिड़िया कैसी होगी?
क्या उसने भोर से कुछ खाया होगा या नही?
कही चील की नज़र तो उस पर नही पड़ गयी होगी?।
दरसल इस फ़िल्म का क्लाइमेक्स तो है,
पर कहानी,फ़िल्म के साथ ख़त्म नही होती,
ये कहानी लंबी है,और थोड़ी मुश्किल भी,
जो सिर्फ़ एक क़लम और कुछ बूँद स्याही पर टिकी है।
आज भी परिंदा अपनी चिड़िया को खोजने निकलता है,
उसी गुमनाम रास्ते पर,
जहाँ कभी चिड़िया की ख़ुशबू मेहकती थी,
उस ख़त के लफ़्ज़ों में अब भी कुछ जान बाकी रह गई है,
कि वो रोज़ उसे ढूंढने को कहते है,
और वो बेहिचक,नफ़ासत से,
रोज़ उसकी तलाश में निकलता है।