Sunday, 27 May 2018

नस्तलिक़।

कितना अजीब है,
कभी तुम्हारे सामने आकर बोलने की हिम्मत नही हुई मेरी,
और यहाँ,
पूरी बेशर्मी से अपने हाल-ए-बयाँ कर देता हूँ मैं,
शर्मिंदगी कैसी और! 
क्या गुनाह है लफ़्ज़ों की सूई में,
तुम्हे बुनना!
एकदम धीरे-धीरे,
जैसे क़लम को दवात में भिगोकर
नस्तलिक़ लिखी जाती है।
एक कशिश रहती है उसमे,
और थोड़ी नज़ाकत भी,
जिससे चमकती है नस्तलिक़,
एकदम उस चाँद जैसे,
जिसने अभी-अभी आईना देखा है,
अपनी लटों को सरकाकर,
और जा रहा है अब,
दूर,बहुत दूर।

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