Monday 25 June 2018

नायाब।

बहती हुई ठंडी हवा,
जो चादर की ज़रूरत को कम्बल में बदल रही है,
और बदलता हुआ हवा का मिज़ाज 
जो तुम्हारे इत्र को मुझ तक पहुँचा रहा है,
वही ख़ुशबू,जो तुम्हारे हाथों से आई थी कभी,
बेसुध करनी वाली,आज मुझ से खेल रही है।
याद है वो दिन भी,
कि कैसे मैंने तुम्हारीे आँखों से,आंसूओं को गिरते देखा था,
टूटती माला के मोतियों को कभी,बिखरते जैसे देखा था।
तब हलक में कुछ नही जाता सिवाय बैचेनी के,
और दिल भी अपने सबसे भारीपन में रहता है,
मानो,कई किलो का सिलबट्टा रख दिया हो सीने पे,
वैसे हवाएँ अब और तेज़ चल रही है,
हमारी कहानियों को सुनने के बाद,
कि बता रही हो कुछ नायाब,
तुम आना ज़रूर मेरे शहर,
तब शायद ये हवाएं,
तुम्हे ही बता दे कुछ नायाब।

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