Tuesday, 23 October 2018

छत।

मैं आज भी जब अपने नज़र की,
उस तिलिस्मी खिड़की से झाँककर देखता हूँ,
तो मुझेे चार दीवारें, एक आँगन,
और एक छत दिखाई देती है।
जिसमे से आँगन को निकाल भी दूँ
तो कोई बड़ी बात नहीं होगी,
लेकिन कुछ ऐसा है इन तीनों में,
जो आज आप शायद ही महसूस कर रहे हो,
मुंडेरे होती है चारों तरफ़ जिसके,
ताकि घर का छोटा बच्चा खेलते-खेलते
लड़खड़ाकर गिर ना जाए,
सुबह बाबा अपना प्राणायाम करने आते थे जहाँ,
भोर की उस चिलचिलाती सर्दी में,
जब रिश्ते हमारे लोगों से ज़्यादा,
रज़ाइयों से बना करते थे,
फ़िर माँ किसी रविवार आती थी,
मुझे लेकर,छत पर,हाथ बटाने,
और मैं आखिर तक,
मुँह फुलाये बैठा रहता था,
देखते हुए,उन सूख रहे साबूदाने के पापड़ों को।
मेरा बचपन भी छत की उन मुंडेरों पर बैठकर,
ढलते सूरज को देखते हुए निकला है,
जहाँ चिंटू-मिंटू रोज़ एक नए खेल को,
इज़ाद करके,उसको अंजाम तक पहुँचाया करते थे,
जहाँ चिंटू की बड़ी बहन पिंकी,
चुपके-चुपके किसी से छत के एक कोने में,
अपना छोटा-सा डब्बा लेकर,
बतियाया करती थी।
पर फिर मैं,और चिंटू-मिंटू सब बड़े हो गए
और अपने घोसलों से निकलकर,
तालीम लेने के लिए,
बाहर आ गए,जहां वक़्त का बहाव,
रक्त की लय जितना होता है,
बहुत तेज़।
अब उस ढलते सूरज को देखने का भी कोई फायदा नही,
क्योंकि अब वो मुंडेरे नही है,
और ना ही वो छत,
जहां बाबा भोर में प्राणायाम करने आते थे,
अब तो यहां साबूदाने के पापड़ भी दुकानों पे मिल जाते है,
चिंटू की बड़ी बहन को भी अब छुपकर बाते नही करनी पड़ती,
कुछ खास नही बदला इतने वक़्त में,इन शहरों में,
बस अब छते सिमटकर रह गई है कुछ पुराने शहरों में,
कुछ देर बाद,
ये वक़्त भी सिमटकर रह जायेगा,
ख़ुदाहफ़ीज़।



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