मैं डूब रहा हूँ,
जैसे एक लकड़ी का लट्ठा,
तेज़ लहरों से लड़ता हुआ,
डूबता चला जाता है।
दिन के आठों प्रहर,
कोशिश में लगे है,
कि मैं किसी तरह सतह पर बना रहूँ,
किसी दूसरी लकड़ी के सहारे,
इस उथलपुथल के बीच,
जहाँ सिर्फ मैं हूँ,
और कोई नही।
रात, जो पहले एक दोस्त हुआ करती थी,
अब शत्रु का किरदार अदा कर रही है,
शायद रूठ गयी है वो मुझसे,
या मेरी आदतों से,
मैं तो फ़िर भी मना लूं,
आदतों का क्या?
असल में,
मैं खुद मेरी आदतों से परेशान हूँ,
तो रात भी क्यों ना हो!
आदतें अच्छी बुरी नही होती,
वो तो एक बुलावा होता है,
जिसके पीछे आप दौड़ते चले जाते हो,
जब आप उसके शिकंजे में,
ख़ुदको क़ैद पाते हो,
और फिर वही मलाल,
घर कर जाता है।
मैं डूब रहा हूँ,
जैसे एक लकड़ी का लट्ठा,
तेज़ लहरों से लड़ता हुआ,
डूबता चला जाता है।
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