हम डरते है,
डरते है अपने आप को आज़ाद करने से,
डरते है अपने अस्तित्व के होने से,
डरते है आने वाले कल से और तो और,
हम डरते है,
आईने से,
कि ग़र कभी आईना बोलने लगे,
तो क्या हम सुन पाएँगे?
कहीं खुद के मुख़ालिफ़त तो नही हो जाएंगे?
शायद फिर ऐसा मंजर होगा,
एक तरफ आदम लड़ रहा होगा,
और एक तरफ हव्वा,
और हम उसी इल्म के पेड़ की एक कच्ची शाख पर बैठकर,
आम खा रहे होंगे।
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