Saturday, 3 April 2021

अच्छा नही होता।

इक मुल्क की सियासत में मज़हब का आना अच्छा नही होता,
मज़हब का यूँ सियासत में बाज़ार हो जाना अच्छा नही होता,

वज़ीर-ए-आज़म चंद महफ़िलो में कहते तो नज़ीर है,
मगर ये झूठ बोलने की आदत लग जाना अच्छा नही होता।

आज भी मुल्क में काश्तकारों की तादात मुनासिब तो है,
बस उनका दारुल-हकूमत से बेवा हो जाना अच्छा नही होता।

सुना है लोगो को क़ैद खाने में एक स्ट्रॉ नही मिल रहा,
जम्हूरियत का ऐसा दोयम फसाना अच्छा नही होता।

हसिए और हथोड़े की ताक़त जहांन में होती तो बोहोत है,
मगर एक रोटी के चार टुकड़े हो जाना अच्छा नही होता।

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