Sunday, 11 April 2021

छल।

वो मर्द बोहोत बुज़दिल होते हैं
जो घर में ख़ुदको शेर समझते हैं,
उन मर्दो में मुर्दा देह के सिवा कुछ नही होता,
सोच में दीमक लग जाती है
और हो जाती है बुद्धि भ्रष्ट।
ये उस पौरुष के सिद्धांत को भी,
कुछ ज़्यादा गम्भीरता से लेते हैं
जो असल में एक छल है,
एक ऐसा छल जिसे दुनिया के,
अधिकतम मर्दो ने धर्म बना रखा है,
और आज की कहानी नही है ये,
एक आदर्श कहानी भी नही है ये,
ये कहानी है बरसों पुरानी,
जो आज तक प्रासंगिक है,
हमारे घरों में, पड़ोस में,
शहरों में, गाँवों में, ब्राह्मणों में,
क्षत्रियों में, वैश्यों में, शूद्रों में,
सब में।

Friday, 9 April 2021

आदतें।

 मैं डूब रहा हूँ,
जैसे एक लकड़ी का लट्ठा,
तेज़ लहरों से लड़ता हुआ,
डूबता चला जाता है।

दिन के आठों प्रहर,
कोशिश में लगे है,
कि मैं किसी तरह सतह पर बना रहूँ,
किसी दूसरी लकड़ी के सहारे,
इस उथलपुथल के बीच,
जहाँ सिर्फ मैं हूँ,
और कोई नही।

रात, जो पहले एक दोस्त हुआ करती थी,
अब शत्रु का किरदार अदा कर रही है,
शायद रूठ गयी है वो मुझसे,
या मेरी आदतों से,
मैं तो फ़िर भी मना लूं,
आदतों का क्या?

असल में,
मैं खुद मेरी आदतों से परेशान हूँ,
तो रात भी क्यों ना हो!
आदतें अच्छी बुरी नही होती,
वो तो एक बुलावा होता है,
जिसके पीछे आप दौड़ते चले जाते हो,
जब आप उसके शिकंजे में,
ख़ुदको क़ैद पाते हो,
और फिर वही मलाल,
घर कर जाता है।

मैं डूब रहा हूँ,
जैसे एक लकड़ी का लट्ठा,
तेज़ लहरों से लड़ता हुआ,
डूबता चला जाता है। 

कल-आज-कल।

 मैं कल था,
मैं आज भी हूँ,
पर जो मैं कल था,
वो आज होने पर मुझे ऐतबार है।
मैं आज हूँ,
मैं कल भी रहूंगा,
बस जो मैं आज हूँ,
निश्चित ही कल नही रहूँगा।
घड़ी की हर एक सुई के साथ,
हम उस होने वाले कल में जा रहे है,
तो फिर क्यों आज की फ़िक्र करे,
और क्यों इंतेज़ार करे कल के होने का,
क्या पता कल हो भी की नही,
इसलिए आज में रहिये,
हो सकता है
आज ही आख़िरी हो।
खुदाहफीज़। 

Wednesday, 7 April 2021

इश्क़ की डायरी।

 तुम्हें ग़र कभी किसी से बात करनी हो,
तो मेरा ख़्याल कर लेना,
शायद तब मैं,
तुम्हारे फ़िराक़ में ही बैठा मिलूँ,
कोई पुराना ख़त या नज़्म पढ़ते हुए।

उसी डायरी के अगले पन्ने पर,
तुम्हारा दिया हुआ मोरपंख रखा होगा,
और मैं बा-इज़्ज़त उसे उठाकर,
वापस रख दूँगा,
इस ख़्याल में
कि एक दिन तुम किसी बहाने 
वही डायरी खोलकर देखोगी,
जब इश्क़ हमारा,
मोरपंख जितना
बूढ़ा हो चुका होगा। 

अनअभिजात।

 समाजवाद,
आदर्शलोक हो सकता है,
असाध्य नही। 
                  
                   प्राथर्ना,
                   वैयक्तिक हो सकती है,
                   सामाजिक नही।
भूख,
तीव्र हो सकती है,
अशिक्षित नही,
                 
                   और हम,
                   ब्रह्म हो सकते है,
                   मिथ्या नही। 

Monday, 5 April 2021

जीवंत।

क्या लिखा जाए,
ये सोचने से बेहतर है
कि कुछ तो लिखा जाए,
क्या के प्रश्न में उलझने से,
तृप्ति नही मिलती और
मन भी स्थिर नही रहता,
और हम एक बिंदु से दूसरे तक,
सिर्फ विहार करते रहे जाते है।
दरसल लिखा जाना अपने आप में,
एक कामयाबी है,
तब आपके जीवंत रहने की
गुंजाइश भी ज़्यादा रहती है,
और लिखा हुआ भी परस्पर,
जीवित हो उठता है। 

Saturday, 3 April 2021

अच्छा नही होता।

इक मुल्क की सियासत में मज़हब का आना अच्छा नही होता,
मज़हब का यूँ सियासत में बाज़ार हो जाना अच्छा नही होता,

वज़ीर-ए-आज़म चंद महफ़िलो में कहते तो नज़ीर है,
मगर ये झूठ बोलने की आदत लग जाना अच्छा नही होता।

आज भी मुल्क में काश्तकारों की तादात मुनासिब तो है,
बस उनका दारुल-हकूमत से बेवा हो जाना अच्छा नही होता।

सुना है लोगो को क़ैद खाने में एक स्ट्रॉ नही मिल रहा,
जम्हूरियत का ऐसा दोयम फसाना अच्छा नही होता।

हसिए और हथोड़े की ताक़त जहांन में होती तो बोहोत है,
मगर एक रोटी के चार टुकड़े हो जाना अच्छा नही होता।

Friday, 2 April 2021

अस्तित्व।

हम डरते है,
डरते है अपने आप को आज़ाद करने से,
डरते है अपने अस्तित्व के होने से,
डरते है आने वाले कल से और तो और,
हम डरते है,
आईने से,
कि ग़र कभी आईना बोलने लगे,
तो क्या हम सुन पाएँगे?
कहीं खुद के मुख़ालिफ़त तो नही हो जाएंगे?
शायद फिर ऐसा मंजर होगा,
एक तरफ आदम लड़ रहा होगा,
और एक तरफ हव्वा,
और हम उसी इल्म के पेड़ की एक कच्ची शाख पर बैठकर,
आम खा रहे होंगे। 

Thursday, 1 April 2021

अप्रैल।

अप्रैल में मुझे,
बहुत पहले से,
एक उदासी नज़र आती थी,
उस एक महीने स्कूल जाने की उदासी,
जिस अप्रैल के बाद,
गर्मी की छुट्टियाँ आती है।
अप्रैल से मुझे नरगिस के वो पीले फूल भी याद आते है,
जो हमारे घर के पीछे,
एक बाड़े में दिखाई दिया करते थे,
एकदम ज़िंदादिल थे वो।
फिर किसी दिन,
किसी को, जगह की ज़रूरत मेहसूस हुई ,
और उस बाड़े में एक कंक्रीट का पेड़ लगा दिया गया,
अब मुझे अप्रैल,
उस पेड़ की याद दिलाता है,
जिसने नरगिस के फूलों को,
यूँही तन्हा कर दिया।

खुदाहफीज़।