Saturday, 17 September 2016

बटवारा

हर्फ़ इंसानियत का उर्दू हिंदी नही होता।
भगवा और हरा कोई धर्म नही होता,

अंदाज़ा था मुझको कोई तो धर्म लाएगा,
मालूम नही था साथ विकट बैर लाएगा।

चाँद पर भी अब तो अधिकार होने लगे है,
खुदको सब राम और कही रहीम कहने लगे है।

ये रंग ये समां अब किस काम का रह गया,
धोती को भगवा,पठानि को हरा करके रह गया।

नाम से अलग करना मर्यादा बन चुकी है,
अली की तो कही हरी की ताबीर बन चुकी है।

पता नही कौन था जिसने दुनिया बनाई,
मंदिर बनाये, मस्जिद बनाई, नवाज़िश नही बनाई।

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