Friday, 17 June 2016

नज़रिया।

धूप का नामोनिशा हो सकता है इन छोटे
रास्तो वाली वादियो में,
वो किसी की सगी नही पर कुछ है तो वो
 मतवाली।

कटीले-नुकीले रास्तो के कोनो पर टिके हुए
वो मीनारों जेसे भययुक्त पेड़,
जो अपनी ज़िंदगी रखने की रोज़ प्रार्थना करते है ,
कि या अल्लाह एक दिन और बख्श दे ताकि
मुसाफिर देखकर फिर कोई मुझसे मोहब्बत
करे और करता ही जाएँ ।

लाखो मौतों की ज़िम्मेदार भी इन्ही नेक
 लोगो के बीच दिखाई देती है ,
थोड़ी पहाड़ो से सटी हुई और हज़ारो मीटर
समंदर से ऊँची ।

और इन सबके बराबर है कोई तो वो मुसाफिर
जिसे ज़िन्दगी छीनने का कोई ऐतबार नहीं
जिसे अपना नाम,निशान उस जगह गढ़ना
है
और जिसे अपनी ज़िंदगी उन तमाम लोगो की
तरह नही बनानी जो रोज़ थोडा थोडा मरकर
इस जहां में नमक की तरह मिल जाते है।

ये रस्ते ये पेड़ ये पहाड़ ये धुप सिर्फ उन लोगो
के लिए है , जो मौत का कफ़न ओढ़कर ,अपनी
ज़िंदगी सचमे ज़िंदगी बनाने निकले है।
अपनी ज़िंदगी सचमे ज़िंदगी बनाने निकले है।


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