गोल मिट्टी के घरोंदे, जो कभी पक्षीयो का आशियाना हुआ करते थे ,आज मेरे नज़रो की तस्वीर बन गए है।
उठी हुई लेहरो पर सवार न हो सका ,ना ही नदी के जलस्रोतों में अपनी छाप छोड़ सका।
घर पर जब रिश्तेदार आते तो मासूमियत की चादर ओढ़े गले के कंठो से स्वर निकलना बंद हो जाते थे।
सूरज की तपिश भरी लहर से डर लगने लगा था, बारिश के वक़्त की गड़गड़ाहट मानो आत्मविश्वास हिला देती थी।
शाखों से फल बड़ी मिन्नतों से गिरते जेसे दुनिया पर एहसान कर रहे हो,और उन्ही पत्तो की बेलाये बडे सम्मान से उड़ान भरती थी।
वक़्त मुझे काटने के लिए दौड़ने लगा,घडी हथेली पर फाँसी जैसी लगती थी मानो फंदा खीचा और वक़्त ठहरा।
गलियो में वो ची-ची-चु-चु करते हर बाल मनुहार जिनकी खिलखिलाहटे अब मुझे ओतप्रोत नही करती।
वो शहर की चकाचौंद करने वाली सडको का भी अब कोई फ़र्क़ नही पड़ता।
ये निशब्धता की वाणी कबतक चलेगी, कब वो शब्दता की मिश्री मुझमे घुलेगी, इंतज़ार है मुझको मेरी निशब्दता के अंत होने का।
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