Sunday 8 May 2016

मानव् प्रवत्ति।


एक छोटे शहर में दौ लड़के रहते थे। दोनों माध्यम परिवार से ताल्लुक रखते हुए। साथ गाते, घूमते, कुलमिलाकर बहुत मस्ती करते थे। पवन जो काफी हँसमुख किस्म का पर थोडा शर्मीला। दूसरा अमित जिसे पढ़ाई में बहुत हस्तक्षेप था। दोनों की ज़िंदगी अच्छी चल रही थी। पर तब वो बचपन की सीढ़ियों पर सफ़र कर रहे थे। अब वे किशोरावस्था में है, एक ऐसी उम्र जब इंसान लोभ प्रकट करता है। इस काल कीं शरीर की कसावट उनमे साफ़ झलकती है। फिर कुछ समय बीता। पवन एक ऐसा लड़का था जिसे लोभ, खुदगर्ज़ी, इन सबका मतलब भी नही पता था। दूसरी तरफ अमित जो इन्ही वैचारिक हथियारों के साथ पवन को धोखा दे रहा था। यहाँ बड़े पैमाने वाला धोखा नही है पर इतना ज़रूर था की पवन उससे नफरत करने लगे। दुसरो के सामने और उसके पीछे बुराइयो की धारा बहता था। पवन से अपने काम निकलवा लेता था लेकिन उसके काम नही करता।
 ये बाते पढ़ने में जितनी आसान है उतनी की विकट भी,क्योंकि इन्ही सारी चीज़ों से हम कभी न कभी गुज़रे होंगे ,जाने में या अनजाने में। यही मानव् प्रवत्ति खोकला करके रख देती है एक विकसित मानव को। उस समय में वो इस भ्रम में रहता है की वही सर्वश्रेष्ठ है वही राजधीश है। और उसके यही गुण हिटलरशाही को बढ़ावा देते है जिसका मतलब साफ़ तौर पर मनमानी से है। पुरे पंक्तियों का अर्थ सिर्फ इस बात में निकलना की व्यक्ति अपना ईमान एक बार भूल सकता है लेकिन वो मानव् प्रवत्ति नही जिसके  वजह से वो लोभी, खुदगर्ज़, बन जाता है। असामाजिकता का बिंदु यहां नही आता क्योंकि असामाजिक होना कोई बुराई नही है। स्वार्थ और लोभ दोनों जिसके समक्ष किये जाते है उनको आतंरिक नुकसान तो होता ही है लेकिन असामाजिक होने पर कोई नुकसान नही कोई बेर नही। बात पूरी अटपटी है लेकिन गौर से पढियेगा तो समझ आ जायेगी और कही न कही आप खुदके ज़िंदगी के साथ इसको जोड़कर भी देखेंगे।

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