Tuesday, 2 August 2016

“मंज़िल"।

मेरे अकेलेपन में तू कुछ इस तरह आई,
जेसे शांत समंदर में लहरे उठकर आ गयी हो,
हौसला दिया ताकि आगे मंज़िल तय कर सकु,
वजूद दिया जिससे मंज़िल में हौसला भर सकु।

दिल को आराम मिलता है तुझसे बात करने में,
इश्क़ मोहब्बत से परे है लेकिन ये सब,
कुछ खास तो नही पर एक ख्वाइश ज़रूर है
खुदा से,
खुशिया जब बाटे तो एक आवाज़ ज़रूर दे देना।

बस कुछ और वक़्त फिर हम साथ होंगे,
इश्क़ में फिर दोनों बदनाम होंगे,
ये मौका हमको फिर नही मिलेगा,
और मिला भी तो फिर क़त्ल सरेआम होंगे।





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