Monday, 26 March 2018

फ़क्र

कुछ कहना चाहता हूँ,सुनोगी?
शायद तुमने सोचा होगा, कि पिछले कुछ दिनों से,
क़लम की स्याही नही उकेरी किसी पन्ने पर,
लेकिन सच कहूँ तो,
इस रुकावट का कोई जवाब ही नही,
पर इतना ज़रूर है,कि आज भी,
इन हर्फ़ों को पढ़ते वक़्त,
लगता है, जैसे सामने तुम ख़ुद बैठी हो,
और मैं तुम्हें ये ख़ुद सुना रहा हूँ।
मुझे आज भी याद है वो झलक,
हाँ, वही पहली झलक, तुम्हें भी याद है ना,
दो साल होने को आ रहे है,
उबड़-खाबड़ रास्तो से भरे दो साल,
फ़िक़्र से भरे दो साल, 
पर फ़क्र से भरा हुआ मैं, कि मुझे तुम मिली,
अब ज़्यादा वक़्त नही है हमारे पास,
बस कुछ चंद राते और है,
फिर किसी और जगह की तपती धूप के सहारे,
सफ़र पे निकल जाने का मन करेगा तुम्हारा,
और मैं तेज़ हवा से लड़ता हुआ एक पेड़ के नीचे जाकर बैठ जाऊंगा,
क्योंकि फिर आँधी के बाद वही मद्धम शाम मेरे सामने होगी,
चाय होगी, सिगरेट होगी, किस्से होंगे,
जिनमें कुछ तुम्हारा ज़िक्र होगा,
तो कुछ हमारा।

Thursday, 15 March 2018

तांगेवाला।

तांगेवाले को देखा था बचपन में,
जब बाड़े की सड़कों से,
तांगा दौड़ाते हुए,
टाउन हॉल के बगल से निकालता था वो।
आज टाउन हॉल है,
तांगा भी है,
और तांगेवाला भी है,
बस कुछ नही,तो वो तब की सवारी,
जिसे तुगड़क-तुगड़क की आवाज़ सूनने का शौक़ रहता था,
अब कोई नही है उस ज़माने का,
जो है,
वो भी तांगेवाले की तरह एक दिन ओझल हो जाएंगे।

Tuesday, 13 February 2018

काला।

आज अठारह साल से ज़्यादा हो चुके हैे,
पर लोगो ने बताना नही छोड़ा कभी,
कि मैं काला हूँ।

मालूम होने के बावजूद भी बताते है,पर,
ना तो मै उस काले रंग पर चाक घिसकर कुछ उकेर सकता हूं,
और ना ही उस काले रंग में चूना मिलाकर,
उसे सफ़ेद कर सकता हूं,
बल्कि वही अगर साँवला होने के लिए मान जाए,
तो भी मैं उससे पाँच मिनट की दरख़्वास्त ना करु,
ये फ़क्र है मुझे मेरे काले होने पर।

लोगो में इतना उतावलापन रहता है,
एक काले को ये महसूस करवाने का कि वो काला है
अरे,इसी खाल के नीचे,
कई नवाज़,और कई ज़ाकिर पैदा हुए,
जो शायद कई गोरो से आगे है,
तो फिर क्या काला और क्या गोरा।

दरसल इतना काला है ना आज सब,
कि गोरों के ऊपर भी धुँए की एक परत दिखती है,
कुछ सालों में जब सूरज की रोशनी से कैंसर होने लगेगा,
तो सबसे पहले गोरे मरेंगे,
ज्यादती दुश्मनी नही है गोरो से,
बस जिन्होंने पूरी कौम को बदनाम किया,
वही मेरे शिकार है।

Wednesday, 17 January 2018

कहानी।

लग रहा है जैसे किसी मूवी का क्लाइमेक्स ख़त्म हो रहा हो,
फ़िल्म की वो आख़िरी सफ़े,
जिसमे एक परिंदा अपनी चिड़िया को ढूंढता हुआ,
सफ़र पे निकलता है,
और जाता है काली पहाड़ी के पीछे,
जैसा उस ख़त में ज़िक्र था,
गुमनाम रास्ते से होता हुआ,
हवाओं से पूछते,भरी फ़िक़्र के साथ,
कि उसकी चिड़िया कैसी होगी?
क्या उसने भोर से कुछ खाया होगा या नही?
कही चील की नज़र तो उस पर नही पड़ गयी होगी?।
दरसल इस फ़िल्म का क्लाइमेक्स तो है,
पर कहानी,फ़िल्म के साथ ख़त्म नही होती,
ये कहानी लंबी है,और थोड़ी मुश्किल भी,
जो सिर्फ़ एक क़लम और कुछ बूँद स्याही पर टिकी है।
आज भी परिंदा अपनी चिड़िया को खोजने निकलता है,
उसी गुमनाम रास्ते पर,
जहाँ कभी चिड़िया की ख़ुशबू मेहकती थी,
उस ख़त के लफ़्ज़ों में अब भी कुछ जान बाकी रह गई है,
कि वो रोज़ उसे ढूंढने को कहते है,
और वो बेहिचक,नफ़ासत से,
रोज़ उसकी तलाश में निकलता है।

Saturday, 23 December 2017

कैसी है वो।

दिन मेरा ढलता है रोज़,ये सोचकर कि ‘कैसी है वो?'
साल का हर एक दिन,
मुझे रोज़ कुछ बताता था,
मिसाल के तौर पर एक रोज़ वो दौड़ते-दौड़ते मेरे पास आया,
और कहता है,
“वो मासूम है,"
मैं खड़ा रहा ख़ामोश,
और सुनता रहा उसे,
बस नज़रे कहीं खो सी गयी थी मेरी
एक रोज़ जब पूर्णिमा का चाँद अपने उफ़ान पर था,
इश्क़ में डूबा हुआ,तब दिन ने,
धीरे से आकर मेरे कान में फुसफुसाया,
“वो बहुत ख़ूबसूरत है।"
इतना बताने के बावजूद हमेशा मैं मेरे लफ्ज़-ए-बयाँ में खुश था,
ज़्यादा नही सोचा कभी,
बस एक शाम,सूर्यास्त के वक़्त,
एक ख़्याल धीरे से मेरे मन में दबिश देता है,और कहता है,
“वो दिल की साफ़ है।”
हाँ, मैं नही जानता उसे पूरी तरह,
पर एक दफ़ा,साथ में जुगलबंदी करने की ख़्वाईश ज़रूर रखता हूं मैं।

Thursday, 14 December 2017

तिलिस्म।

उसे मेरे उर्दू के शब्द बहुत पसंद है,
पर मुझे वो सीधे तरह से 
बात करने की सलाह देती है,
कल मैंने भी कह दिया,
नही बदल सकता अपना लहज़ा,
और वो भी बड़े मासूमियत से मान गयी।
वो रात का पहला पहर,
जब कोई दूर-दूर तक नही था,
सिवाय इस सर्दी की धुंध के,
पर सुकून की बात थी,कि तुम थी,
लेकिन कमबख्त क़िस्मत लंबी नही चली,
और सुबह मेरे सपने का तिलिस्म टूट गया।

Monday, 20 November 2017

मोती।

पलकों से गिरा था वो,और आँखों को सुस्त कर गया,
बेढंग चेहरा हुआ,इधर जनाब-ए-हलक में सर्द कर गया,
मुझे गवारा नही गुज़रता,
जब किसी की आँखों से,
उन छोटे मोती जैसे आंसुओ को बिखरते देखता हूं,
आख़िर उनकी भी तो कोई कीमत होती है।
पर वो पलकें आज तुम्हारी थी,
आँखे नम थी,चश्मा हटा था,
और एक मुस्कान गायब थी,
मुझे बातें करनी थी,देखना था,
मिलना था,पूछना भी था, 
पर इतनी उम्मीदें मेरा ख़ुदा तो पूरी नही कर सकता,
वो सीधा-सीधा वक़्त का बहाना देकर मुझे फुसला लेता है।
मैं चल दिया अपने घर की तरफ़ चुप्पी साधे,
पर दिमाग में वही था और दिल में वो ही थी,
दरख़्तों के साये में रहकर,
भीनी धूप से बचकर,
हाथ में हाथ लेकर,
जन्नत की सेर करने का ख़्वाब देखते-देखते कब घर आ गया,
पता नही चला,पर धुंध मिट गई और ख़्वाब भी बिखर गया,
लेकिन अब अगर मोतियों को बिखरने का मौका देना है,
तो एक संदूक में उन्हें सँभालकर मुझे दे देना,
ताकि उसकी एक माला बनाकर,
मैं मेरे रब की इबादत कर सकूँ।