Friday, 31 March 2017

बचपन।

पता नहीं कहाँ गए वो दिन,
जिन्होंने शुरूआत में बहुत हँसाया था,
जब ऊंगलियाँ बालपन में थी अपने,
मन बेपरवाह रहता था,पर अब
माथे पे लकीरो से,माथे पर,
रेशम का रास्ता बन चुका है,
तू ही जानता है ,कहाँ गए वो दिन।
झबलो से शुरुआत की थी मैने अपने दिनों की,
आज सूट पहनकर उसी दिन को धीरे से अलविदा करता हूँ,
कुछ तो अलग रहता है वो वक़्त,
जिसे हम बचपन कहकर पुकारते है,
तू ही जानता है,कहाँ गए वो दिन,
धीमे, हल्के, और कच्चे,
बचपन के वो दिन।

Tuesday, 21 March 2017

कब होगा ये सवेरा।

कितना इंतज़ार होगा अब और,
सब्र की भी एक देहलीज़ होती है,
सूरज निकलने को नही मानता,
चाँद लज्जा से मर गया,
पर जाने को तैयार नही,
कब होगा ये सवेरा।
घरों पर ताले बंद पड़े है,
गलियां सुनी-सुनी हो चली,
गाँव ऐसे उजड़े जैसे बस्ती में आग हो,
परिवार उस बैलगाड़ी में बैठा हुआ,
अपना पुश्तेनी मकान देख रहा है,
झरझर,पुराना,लेकिन यादों का ज़खीरा,
पर कोई नही जानता
कब होगा ये सवेरा।

Tuesday, 14 March 2017

रुआँसा।

मन अट नही रहा,
चारो तरफ लोगो का ज़खीरा,
फिर भी लगता है जैसे,
किसी शमशान में अकेले घूम रहा हूँ,
वैसे कल होली की मुबारकबाद,
दे ही दी उन्होंने,
लगा की अब इससे ज़्यादा ख़ुशी की बात क्या है,
पर आज फिर सब रुआँसा हो गया,
फ़र्क़ है आज और कल में,
और मन भी तो अपना मालिक है,
ना मेरी चलने देता है,
ना दिमाग की सुनता है,
बस भटकता है इधर-उधर,
किसी की तलाश में।

Wednesday, 8 March 2017

सुकूँ।

आज लिखकर भी सही नही लग रहा,
कुछ अधूरा है शायद,
कलम भी है मेरे पास ,
कागज़ भी है,
पर सुकूँ नहीं,तभी कही,
कुछ अधूरा है शायद।
ये सुबह से लेकर शाम तक भागते लोग मेरी क्या मदद करेंगे,
इन्ही के पास सुकूँ नही तो जाऊ कहाँ?
या अल्लाह बक्श दे न कुछ आराम,
सुकूँ से ही रह लूँगा कुछ दिन,
जहाँ मेरे लोग होंगे,मेरी सल्तनत होगी,
और मैं उस सल्तनत का बादशाह रहूँगा।