Monday, 16 May 2016

न्याय का इंतज़ार।

भारतीय न्यायपालिका, भारत का एक राजनीतिक
दल, और एक विचारधारा, इन सभी के बीच 
लगातार आठ सालो से पीस रही एक औरत।
जिसका नाम है साध्वी प्रज्ञा सिंह, तन पर 
भगवा रंग का झोंगा और 2008 के समय का
वो तेज जिसको महाराष्ट्र एंटी टेररिस्ट स्क्वाड 
ने नेस्तनाबूत कर दिया। कांग्रेस की सरकार 
ने सिर्फ इसलिए उस औरत को सलाखों के 
पीछे डाला क्योंकि वो एक साध्वी थी और 
भगवे रंग की विचारधारा की समर्थक थी। 
पुरे आठ सालो में कोई ठोस सबूत की पुष्टि 
नही हो पायी। पर पुलिस द्वारा साध्वी को इतना
प्रताड़ित किया गया की आज उनके कमर के
निचे का पूरा हिस्सा लकवे से ग्रस्त है। आप 
खुद सोचिये क्या बीती होगी उस पर जब प्रताड़ना
की तलवार उनपर चली। और सिर्फ एक कारण
जिसकी वजह से ये सब हुआ, “भगवा आतंकवाद"। जबकि आतंकवाद का कोई रंग
नही होता लेकिन कांग्रेस ने इसे सिद्ध करने का
इतना प्रयास किया जिसका परिणाम आज साध्वी 
प्रज्ञा की ये ये हालात है। मुझे शर्म आती है
न्यायपालिका पर , कांग्रेस पर, और उन दैत्यों पर
जो जनता की सेवा के लिए नियुक्त किये गए है।
इस बार की सरकार से मुझे उम्मीद है, शायद साध्वी
को न्याय मिले।

Wednesday, 11 May 2016

घर में बर्तन बजने वाले है।

आख़िर आज वो दिन आ गया, कई सालो बाद
मोहल्ले में शहनाई बजेगी ,कभी बजी थी पर
 उसको सफ़ेद बालो वाली अम्मा भी भूल गयी,
लेकिन् अब जश्न होगा क्योंकि घर में बर्तन बजने वाले है।

माँ ने अपनी आस भरी नज़र से बेटी को कहा,
लड़के वाले आने में होंगे जा दीदी को तैयार करदे,

छोटी दौड़ते-दौड़ते रोज़ के मुक़ाबले आधे
 समय में ऊपर पहुची, माँ की फ़िक़्र बहन तक
 पहुचाई और बड़े किशोरी मन से दीदी के
 नाख़ून लाल करने शुरू कर दिए।

बड़ी बड़े बेचैन मन से अपनी बैचेनी को बड़ा
रही थी, शायद ये उसकी लालिमा में छुपी किसी
 तरह की चिंता दिखती है।

बाबा के दिन, दिन-ब-दिन घटते जा रहे है,
घर के राशन पानी की व्यवस्था कैसे होगी, क्या
ये चिंता है अपने बाबा की बड़ी बेटी को?

छोटी की उम्र अब किशोरावस्था के
अंतिम चरण में पहुँच गयी है, उसकी विवाह
 की शहनाई कैसे बजेगी ,क्या ये चिंता है
अपनी छोटी की ज़िम्मेदार दीदी को?

चिंताए ,फ़िक्रे ,बेचैनियां ये सब लाज़मी है
पर अंत में समाज और खुद परिवार कह देता है,
घर में बर्तन बजने वाले है।







Monday, 9 May 2016

“निशब्दता"।


गोल मिट्टी के घरोंदे, जो कभी पक्षीयो का आशियाना हुआ करते थे ,आज मेरे नज़रो की तस्वीर बन गए है।

उठी हुई लेहरो पर सवार न हो सका ,ना ही नदी के जलस्रोतों में अपनी छाप छोड़ सका।

घर पर जब रिश्तेदार आते तो मासूमियत की चादर ओढ़े गले के कंठो से स्वर निकलना बंद हो जाते थे।

सूरज की तपिश भरी लहर से डर लगने लगा था, बारिश के वक़्त की गड़गड़ाहट मानो आत्मविश्वास हिला देती थी।

शाखों से फल बड़ी मिन्नतों से गिरते जेसे दुनिया पर एहसान कर रहे हो,और उन्ही पत्तो की बेलाये बडे सम्मान से उड़ान भरती थी।

वक़्त मुझे काटने के लिए दौड़ने लगा,घडी हथेली पर फाँसी जैसी लगती थी मानो फंदा खीचा और वक़्त ठहरा।

गलियो में वो ची-ची-चु-चु करते हर बाल मनुहार जिनकी खिलखिलाहटे अब मुझे ओतप्रोत नही करती।
वो शहर की चकाचौंद करने वाली सडको का भी अब कोई फ़र्क़ नही पड़ता।

ये निशब्धता की वाणी कबतक चलेगी, कब वो शब्दता की मिश्री मुझमे घुलेगी, इंतज़ार है मुझको मेरी निशब्दता के अंत होने का।



Sunday, 8 May 2016

मानव् प्रवत्ति।


एक छोटे शहर में दौ लड़के रहते थे। दोनों माध्यम परिवार से ताल्लुक रखते हुए। साथ गाते, घूमते, कुलमिलाकर बहुत मस्ती करते थे। पवन जो काफी हँसमुख किस्म का पर थोडा शर्मीला। दूसरा अमित जिसे पढ़ाई में बहुत हस्तक्षेप था। दोनों की ज़िंदगी अच्छी चल रही थी। पर तब वो बचपन की सीढ़ियों पर सफ़र कर रहे थे। अब वे किशोरावस्था में है, एक ऐसी उम्र जब इंसान लोभ प्रकट करता है। इस काल कीं शरीर की कसावट उनमे साफ़ झलकती है। फिर कुछ समय बीता। पवन एक ऐसा लड़का था जिसे लोभ, खुदगर्ज़ी, इन सबका मतलब भी नही पता था। दूसरी तरफ अमित जो इन्ही वैचारिक हथियारों के साथ पवन को धोखा दे रहा था। यहाँ बड़े पैमाने वाला धोखा नही है पर इतना ज़रूर था की पवन उससे नफरत करने लगे। दुसरो के सामने और उसके पीछे बुराइयो की धारा बहता था। पवन से अपने काम निकलवा लेता था लेकिन उसके काम नही करता।
 ये बाते पढ़ने में जितनी आसान है उतनी की विकट भी,क्योंकि इन्ही सारी चीज़ों से हम कभी न कभी गुज़रे होंगे ,जाने में या अनजाने में। यही मानव् प्रवत्ति खोकला करके रख देती है एक विकसित मानव को। उस समय में वो इस भ्रम में रहता है की वही सर्वश्रेष्ठ है वही राजधीश है। और उसके यही गुण हिटलरशाही को बढ़ावा देते है जिसका मतलब साफ़ तौर पर मनमानी से है। पुरे पंक्तियों का अर्थ सिर्फ इस बात में निकलना की व्यक्ति अपना ईमान एक बार भूल सकता है लेकिन वो मानव् प्रवत्ति नही जिसके  वजह से वो लोभी, खुदगर्ज़, बन जाता है। असामाजिकता का बिंदु यहां नही आता क्योंकि असामाजिक होना कोई बुराई नही है। स्वार्थ और लोभ दोनों जिसके समक्ष किये जाते है उनको आतंरिक नुकसान तो होता ही है लेकिन असामाजिक होने पर कोई नुकसान नही कोई बेर नही। बात पूरी अटपटी है लेकिन गौर से पढियेगा तो समझ आ जायेगी और कही न कही आप खुदके ज़िंदगी के साथ इसको जोड़कर भी देखेंगे।

“सफरनामा"

छोटी-छोटी बाते ज़िन्दगी में बहुत अहमियत रखती है।हमारे रिश्ते ,हमारी यादे ,इन सभी चीज़ों में कुछ खट्टी और कुछ मीठी बाते दोनों बराबर का समन्वय रखती है।यही कुछ बाते हम करेंगे एक घर में जिसका नाम है “साँझ"।