मैं आज कुछ ऐसा कबूल करने वाला हूँ,
जिसे शायद आप शायद थोड़ा अजीब कहे,
दरसल मैं दीवारों से बाते करता हूँ,
और वो मुझे बा-इज़्ज़त जवाब देती है,
और ये सिलसिला बस यूँही चलता रहता है,
देर रात तक गुफ़्तगू होती है हमारी,
उसे कुछ भी बताओ,
बड़ी तसल्ली के साथ सुनती है वो।
वैसे बाकी लोगों के लिये,
एक दीवार के कई मायने निकाले जा सकते है,
दरसल हर एक इंसान के भीतर एक दीवार है,
जिसके पार वो कभी देखने की जुर्रत नही करता,
उसके जज़्बात उसके लिए सुबूत का काम करते है,
और शायद इसी लिए,
वो देखे हुए को सच और,
सुने हुए को झूठ समझ बैठता है।
क्या आपको नही लगता,
कि दीवारें हमे महफ़ूज़ रखती है,
किसी बाहरी खतरे से नही,
पर हमारे ही भीतर छुपे हुए डर से,
इसलिए भी शायद आदिकाल के इंसानो को,
गुफाओं में रहने की ज़रूरत महसूस हुई।
यही खेल है दीवार का,
अगर वो सुकून से आपको सुनती है,
तो कही आपकी सोच में रुकावट भी बनती है,
तो कही आपको महफूज़ भी रखती है,
आपके क्या मायने है
एक दीवार के?
ख़ुदाहफीज़।
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