Wednesday, 10 April 2019

ख़्याली पुलाव।

कौन कहता है यारी में इश्क़ का ख़्याली पुलाव नही पक सकता,
वो शाम को काम ख़त्म करने के बाद की बेचैनी,
कि बस एक दफ़े तुमसे बात हो जाये,
जैसी ख़्वाईशे करने में मज़ा आता है अब रोज़।

तुम्हारी तस्वीरों को भी,
सागवान के एक बक्से में बंद करके,
उन्हें अपने पास संभालकर रख रखा है मैने,
कुछ उन चुनिंदा चीज़ों में जो हर पंद्रह दिनों में,
एक बार,उस संदूक से ज़रूर निकलती है,
ताकि धूल की उस बेशर्म महीन परत को निकाला जा सके,
जो इतनी ज़िल्लत सहकर भी वापस आ जाती है।

ऐसे ही कुछ दिन पहले,
अपनी एक पुरानी फ़ाइल ढूंढते हुए
तुम्हारा एक ख़त मिला,
जिसपे तुम्हारी नास्तलिक लिखी हुई थी,
और तुम्हारे अनगिनत लफ़्ज़,
जो मेरे लिए एक ख़ज़ाने से कम नही थे,
मैने वो ख़त पढ़ना चालू किया,
शायद सो वी बार पढ़ रहा था मैं,
तेज़ी से आख़िरी लफ्ज़ तक पहुँचा,
और फिर बाइज़्ज़त उसकी घड़ी के हिसाब से,
उसे तह करके हिफाज़त से अंदर रख दिया,
वो याद सिमटते हुए वापस खड़ी हो गयी।

फ़िर कुछ ख़्याल आये,
जो अब तक किसी बंद दबी कोठरी में,
एकदम बेसुध पड़े थे
कि बस ढूंढते-ढूंढते उन्हें महीनों निकल गए,
कम्बख़्त एक ख़्याल भी नही आया,
पर आज वो दौड़त-दौड़ते मेरे पास आये,
तेज़ी से हाफ़ते-हाफ़ते,
वो ख़्याल जो आज इन लफ्ज़ो की शक़्ल में,
तुम्हारे सामने नज़र किये हुए है,
मुद्दे की बात ये हैं,
कि मेरे शहर से इतना दूर होकर भी,
तुम उन ख्यालों में मुस्तक़ील हो,
जहां से मैने ये ख़्याली पुलाव तैयार किया है,
चखकर बताओ,
कैसा है?

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