Saturday, 25 August 2018

करवटें बदलती गयी रात भर।

करवटें बदलती गयी रात भर,
बस नींद का नामोनिशां नही है,
कुछ तस्वीरें है धुंधली,
तो कहीं ख़्वाब है उलझे।

पुराने अख़बारों जैसे पुराने ख़्वाब,
जिनसे रद्दी की महक़ भी,
केवड़े-सी लगती है,
बस आ पड़ते है वो बेवक़्त,
जब सारा ज़माना नींद में रहता है,
और हम उन्हीं ख़्वाबों की 
किसी सकड़ी गली में आँखमिचौली खेला करते है।

एकदम बेसुध होकर,
कि ये भी पता नही चलता,
कब तुम्हें ढूंढ़ते-ढूंढते सवेरा हो गया,
और ख़्वाब ने धीरे से अलविदा करते हुए कहाँ,
“फिर आऊँगा रात के दूसरे पहर में"
ताकि करवटें बदलता रहूं मैं,
और नींद का नामोनिशां भी ना रहे।

Wednesday, 15 August 2018

72 साल की आज़ादी।

शक़ किस बात का है,आज़ादी का!
अरे,अपने पैरों पर चलकर हँस रहे हो,
और किस बात की आज़ादी चाहिए,
जो मन कहता है,वो कह देते हो,
कोई रोक नही कोई टोक नही,
इससे बड़ी आज़ादी और क्या होगी,
फ़र्क़ बस इतना है,कि पहले इंसान बोलते थे,
हज़ारो की जमातो में,
बस अब वही लफ्ज़ ज़ुबाँ से निकलने के बजाय,
कीबोर्ड के खटखट होने से निकलते है।
72 साल हो गए,आज़ाद रहते हुए,
पर कम्बख़्त हम इंसानों में से, कुछ इंसा इतने आज़ाद हो गए,
कि अपनी हदे भूलकर,फिर वो शैतान हो गए,
और भूल बैठे,अपने ईमान,इंसानियत,और इल्म को,
वैसे करते वो भी है खटखट आज के दिन,
72 साल के आज़ाद देश में मेरे।

Wednesday, 1 August 2018

अभी जान बाकी है तुम में।

ग़र हो परेशां ,तो बैठो ज़रा,
चैन की साँसे लो,फिर बताओ ज़रा,
ख़ुद को अभी हवाले मत करो,
अभी जान बाकी है तुम में,
हौसला,जुनून,इन सब को तो ले आएंगे कोड़े दामों में,
बस पहले तुम संभल जाओ,
क्योंकि अभी जान बाकी है तुम में।
ग़र हो परेशां,
तो ख़्यालों को खंगाल लो एक दफ़े,
शायद कही,किसी दबे कोने में,
एक ख़्याल सुलग रहा हो अब तक,
तो दबा देना उसे अपने हाथों से,
कि ख़्याल भी मिट जाए,
और वो माथे पर पड़ी शिकन भी ख़त्म हो,
जिससे अक्सर परेशान रहते थे तुम।
बस अब रुकना मत,चलते रहना बेफ़िक्र,
ग़र फिर भी तकलीफ़ हो,तो बैठ जाना,
और सोचना सिर्फ़ दो बातें,
कि कहाँ से आये और कितने दूर तक,
फ़िर शायद याद आ जाये तुम्हें,
तुम्हारा वो नूर,जो कभी था,
लगेंगे कुछ चंद दिन,हफ़्ते, महीने या साल,
बस चलते रहना मुसलसल,क्योंकि,
अभी जान बाकी है तुम में।