Friday, 13 April 2018

अजमेर डायरीज़।

अजमेर के चकाचौन्द करने वाले बाज़ारो से लेकर,
रिक्शा खीचने वाले आदमी तक,
सब देखने लायक है यहाँ,
अकबर का बनवाया हुआ किला,
आज भी इस्लामिक वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है,
चार बाग़ है,जनता दरबार है,
जिसके चारों ओर कमरे बने हुए है,
आज के इस तकनीकी भरे जीवन मे इतिहास के वो अंश बड़ी सहजता से संजोकर कर रखे गए है,
जिसमे सिक्के,हथियार,धर्म,जीवन,शिलालेख,जो पत्थर,ताम्बा पीतल सोने,चांदी सभी पर पाए गए है,और
तस्वीरे ,मूर्तिया ,खुदाई में निकली हुई कई चीज़े है जो ये सोचने पर मजबूर करती है,
कि तब के फ़नकारों की कुछ बात ही अलग होती होगी,
तभी तो मुग़लिया दरबार में
तानसेन और बिहज़ाद की औकात सबसे बढ़कर थी।

अजमेर से लगभग चार कोस की दूरी पर बसा है,
प्राचीन भारत का वो इकलौता शहर जहाँ ब्रह्देव का इकलौता मंदिर है,
ब्रह्मनगरी अर्थात पुष्कर।

पुष्कर में ऊँटगाड़ी में बैठने के बाद पहली दफ़े मालूम पड़ा,
कि ऊँट की सबसे तेज़ रफ़्तार उस वक़्त रहती है जब वो ढलान चढ़ता है,और सबसे धीमी तब,
जब वो टेक उतरता है।

शाम के वक़्त,पाक साफ़ होकर,
हल्का-सा इत्र लगाकर,
जब मदार गेट से चलते हुए आप दरगाह की तरफ़ बढ़ते हो,
और रोशनी से नहायी हुई गालियाँ देखते हो,
जहाँ कपड़े,मिठाइयां,
और सबसे ख़ास ग़ुलाब,
जो अजमेरी सरकार की दरगाह पर चढ़ता है,
सब अपनी पेशकश लिए,
सभी हजरातों के सामने बिकने के लिए तैयार रहते है, 
क्योंकि उनका आख़िरी सफ़र उन्ही के पैरो में है,
और उन्ही के आगे।

अंदर घुसते बराबर,आपको ये मालूम पड़ जाता है,
कि क्यों इतनी दूर-दूर से लोग ख़्वाजा गरीब नवाज़ के पास अपनी अर्ज़ियाँ लेकर आते है,
गरीब से लेकर अमीर,
और भले से लेकर बीमार,
सब आते है, दुआ-ओ-असर करने के लिए।

अजमेर वैसे तो मुगलकालीन समय का शहर है,
जहाँ सिक्को का भंडार हुआ करता था,
पर पिछले चौबीस घण्टो से मैं,
10₹ का एक भी सिक्का नही चलवा पाया,
या तो फिर वो लड़खड़ाकर,
अजमेर के बाज़ारो में कही खो गया है।

अजमेर के खान-पान के क्या कहने,
इतने अदब से,पान से लेकर कचोड़ी तक,
सब यहाँ मोहब्बत की थाली में परोसा जाता है,
और फिर आख़िर में,गुलाबरास में डूबी हुई सॉफ्टी के साथ एक मुफ़्त मुसकान देकर वो आपको अलविदा करता है।

सफ़र अब ख़त्म हो रहा है,
मतलब उन अनजाने चेहरों की चमक अब नही दिखेगी,
होगा फिर कभी ऐसा मंज़र,
जब धीरे से,
दबे पाव निकलने का मन करेगा मेरा,
बस तब शहर अलग होगा,
और उसके ख़िल्क़त-ए-शहर भी।

Thursday, 12 April 2018

तुम हो।

“तुम मेरे लिए क्या हो?"
क्या तुम वो मीठे पानी का झरना हो?
जिसे देखने के बाद राहगीर अपने मन में,
एक सुकूँ की चादर ओढ़कर सो जाता है,
वैसे ही जैसे,किसी ज़माने में,तिरछी नज़रो के सहारे,
तुम्हारी एक झलक लेने के लिए परेशां रहता था मैं।

क्या तुम उस पुराने रखे हुए बरगद के पेड़ की छाँव हो?
जिसके करीब रहकर सर पे धूप नही पड़ती,
और डर नही रहता,
उस लू का जो गरम हवा के थपेड़े अपने साथ लाती है।

क्या तुम मेरे लिए वो पथिक हो?
जो मेरा हाथ थामकर,
पगडंडी पार करवाता है,
और हौसला देता है,
ये कहकर की,
‘ज़िंदगी की तकलीफों को यूँ हँसकर दफ़ा कर दे,
जैसे वो तेरी मेहमान है और तू उनका मेज़बान।'

पर आख़िर में ये ज़रूर है,
कि तुम हो।:)

Saturday, 7 April 2018

हिचकी।

कहाँ हो तुम?
क्या तुम्हें मेरी याद आती है?
अच्छा है,अगर नही आती तो,
क्योंकि जितनी मुझे आती है,
उसका हिसाब लगाना तुम्हारे बस की बात नही।
क्या तुम्हें हिचकियाँ आती है?
अच्छा है अगर आती है,
क्योंकि हर हिचकी जो तुम्हारे भीतर आती है,
सब का ज़िम्मेदार सिर्फ़ मैं और
मेरे भीतर का एक-एक कतरा है,
जो याद करते-करते हर रोज़ दफ़्न होता है,
कमबख़्त को कितना भी समझाओ,
सुधरना ही नही चाहता,
बस डूबना चाहता है,
उस समंदर में जहाँ एक परिंदा भी पर न मारता हो,
तैरना नही आता,
बस एतमाद है,
कि तुम आओगी बचाने,
और नही आई तो ज़्यादा कुछ नही होगा,
बस फिर तुम्हे कभी हिचकी नही आयेंगी।