Monday, 30 October 2017

इबादत।

मुझे आज भी लगता है जैसे कल ही हमारी मुलाक़ात हुई हो,
तुम्हारा ओर मेरा नज़रे मिलाना,
रासलीला की उन इठलीयो जैसा लगने लगा है,
जिसमे इरादा तो नेक है,पर तरीक़े लुभावने।
हक़ीकत में जब पहली दफ़ा देखा था,
तब सोचा था,कि कलम की स्याही तुम्हारी मुरीद होगी,
ओर हम वो बाशिंदे,
जो स्याही से ख़ुदा ओर उसके इश्क़ की इबादत करते है।
मैं आज भी वही हूँ जिसे तुमने पहली मरतबा देखा था,
बस कुछ बदला है इतने वक़्त में तो वो है मेरे अल्फ़ाज़,
जो कल तक शायद थोड़े फीके थे,
पर अब उनमे भी श्रृंगार का वो रस है,
जिससे तुम्हारी बाहरी चेष्टाओं का पता लगता है।
तुम्हारी वो कथक की मुद्राये आज भी याद है,
जिसने कंपन पैदा किया था मेरे भीतर,
शाम का वो एक तरफ़ा समाँ,जब अँधेरा नही था,
उजाला नही था,पर तुम थी,और मेरी दो टूक नज़रे,
उस शाम से लेकर आज की रात तक,
कोई गलतफ़हमी नही पाली मैंने,
पर मेरा पीर मुझे आख़िर में,
रोज़ तुम्हारा सजदा करने की इजाज़त दे देता है।

Friday, 6 October 2017

ये शाम।

ये शाम भी कितनी धुंधली है,
कि बताती नही कुछ,
क्या करे इस शाम-ए-वक़्त में,
जब बोरियत का लबादा ओढ़े बैठे रहते है हम, 
इंतज़ार करते हुए उस सूरज के डूबने का जो सुबह घर की चौखट लाँघकर निकला है,
और अब जा रहा है हाथ में खिलौना लिए ताकि घर की उस तिलिस्मी खिड़की से,
रूठे चेहरों की कोई शिकायत ना सुननी पड़े।
मैं जब शाम को उस पहाड़ को देखता हूँ,
जिसपर सफ़ेद कोहरे की एक परत बिछी रहती है,
तो लगता है ,कि काश मेरी भी शाम ऐसे ही किसी पहाड़ पर,
धुओं के आशिको के साथ ओझल हो जाये।
एक नदी हो,
जिसके चारों तरफ कम ऊँचाई वाले पेड़-पौधे लगे है,
और सामने फ़िर वही शाम,
जब पानी में पैर डालकर उस सूरज को धीरे से अलविदा करने का मन करता है मेरा,हाँ,
ऐसी शाम की ख्वाईश रखता हूँ मैं।
शाम हो चली अब,
सूरज भी अपने घर चला गया,
जो कुछ कसर बाकी रह गयी थी अँधेरा होने में,
वो भी अब पूरी हो चुकी है,
अब शाम नही,सूरज नही,
किसी का इंतज़ार है अभी तो सिर्फ तारों के आने का,
जो बस आते ही होंगे।