Saturday, 22 April 2017

समझ

जो समझना नही चाहता ,
उसे समझा नही सकते,
खुदकी रगों में टुकड़े बचे है उसके,
पर जिसे नही समझना,
उसे समझा नही सकते,
हेकड़ी की बात है,
या जबर्दस्ती अपनी,
बस नही समझना,
यही ज़िद है और यही लकीर,
फिर चाहे आसमां एक हो,
या फिर ख़ुदा समझाने को आये,
पर जिसे नही समझना,
उसे समझा नही सकते।

Monday, 10 April 2017

बुढ़ापा।

दिन और रात एक सी हो चली,
आँखे खोलकर बिस्तर पर पड़ी रहती है वो,
बूढ़ी,थकी हुई,आलसी पर काम करने को इच्छुक
चलने में बचपना आ गया हैं वापस,
इसलिए लोग भी अब ज़्यादा ध्यान देने लगे हैं,
कितने गुमसुम और फ़ीके हो गए ये दिन,
बगल में अपने अंत की घड़ी में,
रोज़ धीमी-धीमी रेत को रिसते देखकर,
अपना और घड़ी का रिश्ता बरक़रार रखती है,
नानी,दादी कहते हैं जिनको,
ढल रही है उमर,
शायद एक दिन साँझ भी ढल जाये।