वो मिट्टी के जालीदार झरोखों से आती धूप,
हमेशा ही बहुत ज़ायकेदार होती है,
चेहरे पर पड़ते ही ज़माना पीछे चला जाता है,
और हम किसी याद में मसरूफ़ होकर,
वक़्त से आगे निकल जाते हैं।
वो तजूर्बा एकदम उस पहली लिखी गयी कविता जैसा होता है,
जो अभी बस अंगड़ाई लेकर बिस्तर से खड़ी ही हुई है,
और अपने पहले कदम रखकर,
इस जहां की ज़ोरो-आजमाइश में,
ख़ुदको नीलाम कर बैठी है,
हाँ! ये वही कविता है,
जो अब पढ़ी नही जाती,
खुदाहफीज़।
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