कितना अजीब है,
कभी तुम्हारे सामने आकर बोलने की हिम्मत नही हुई मेरी,
और यहाँ,
पूरी बेशर्मी से अपने हाल-ए-बयाँ कर देता हूँ मैं,
शर्मिंदगी कैसी और!
क्या गुनाह है लफ़्ज़ों की सूई में,
तुम्हे बुनना!
एकदम धीरे-धीरे,
जैसे क़लम को दवात में भिगोकर
नस्तलिक़ लिखी जाती है।
एक कशिश रहती है उसमे,
और थोड़ी नज़ाकत भी,
जिससे चमकती है नस्तलिक़,
एकदम उस चाँद जैसे,
जिसने अभी-अभी आईना देखा है,
अपनी लटों को सरकाकर,
और जा रहा है अब,
दूर,बहुत दूर।
कभी तुम्हारे सामने आकर बोलने की हिम्मत नही हुई मेरी,
और यहाँ,
पूरी बेशर्मी से अपने हाल-ए-बयाँ कर देता हूँ मैं,
शर्मिंदगी कैसी और!
क्या गुनाह है लफ़्ज़ों की सूई में,
तुम्हे बुनना!
एकदम धीरे-धीरे,
जैसे क़लम को दवात में भिगोकर
नस्तलिक़ लिखी जाती है।
एक कशिश रहती है उसमे,
और थोड़ी नज़ाकत भी,
जिससे चमकती है नस्तलिक़,
एकदम उस चाँद जैसे,
जिसने अभी-अभी आईना देखा है,
अपनी लटों को सरकाकर,
और जा रहा है अब,
दूर,बहुत दूर।