लग रहा है जैसे किसी मूवी का क्लाइमेक्स ख़त्म हो रहा हो,
फ़िल्म की वो आख़िरी सफ़े,
जिसमे एक परिंदा अपनी चिड़िया को ढूंढता हुआ,
सफ़र पे निकलता है,
और जाता है काली पहाड़ी के पीछे,
जैसा उस ख़त में ज़िक्र था,
गुमनाम रास्ते से होता हुआ,
हवाओं से पूछते,भरी फ़िक़्र के साथ,
कि उसकी चिड़िया कैसी होगी?
क्या उसने भोर से कुछ खाया होगा या नही?
कही चील की नज़र तो उस पर नही पड़ गयी होगी?।
दरसल इस फ़िल्म का क्लाइमेक्स तो है,
पर कहानी,फ़िल्म के साथ ख़त्म नही होती,
ये कहानी लंबी है,और थोड़ी मुश्किल भी,
जो सिर्फ़ एक क़लम और कुछ बूँद स्याही पर टिकी है।
आज भी परिंदा अपनी चिड़िया को खोजने निकलता है,
उसी गुमनाम रास्ते पर,
जहाँ कभी चिड़िया की ख़ुशबू मेहकती थी,
उस ख़त के लफ़्ज़ों में अब भी कुछ जान बाकी रह गई है,
कि वो रोज़ उसे ढूंढने को कहते है,
और वो बेहिचक,नफ़ासत से,
रोज़ उसकी तलाश में निकलता है।
फ़िल्म की वो आख़िरी सफ़े,
जिसमे एक परिंदा अपनी चिड़िया को ढूंढता हुआ,
सफ़र पे निकलता है,
और जाता है काली पहाड़ी के पीछे,
जैसा उस ख़त में ज़िक्र था,
गुमनाम रास्ते से होता हुआ,
हवाओं से पूछते,भरी फ़िक़्र के साथ,
कि उसकी चिड़िया कैसी होगी?
क्या उसने भोर से कुछ खाया होगा या नही?
कही चील की नज़र तो उस पर नही पड़ गयी होगी?।
दरसल इस फ़िल्म का क्लाइमेक्स तो है,
पर कहानी,फ़िल्म के साथ ख़त्म नही होती,
ये कहानी लंबी है,और थोड़ी मुश्किल भी,
जो सिर्फ़ एक क़लम और कुछ बूँद स्याही पर टिकी है।
आज भी परिंदा अपनी चिड़िया को खोजने निकलता है,
उसी गुमनाम रास्ते पर,
जहाँ कभी चिड़िया की ख़ुशबू मेहकती थी,
उस ख़त के लफ़्ज़ों में अब भी कुछ जान बाकी रह गई है,
कि वो रोज़ उसे ढूंढने को कहते है,
और वो बेहिचक,नफ़ासत से,
रोज़ उसकी तलाश में निकलता है।